उत्तराखंडकाम की बातेंपर्सनालिटीपुरस्कार/सम्मानमुशायरा/कवि सम्मेलनसाहित्य

छंद में ‘कंटेंट’ को तरसती कविता

सोशल मीडिया और मंचों के मौजूदा दौर में छंद से कविता गायब होती जा रही है। जिनके पास कविता है, वह छंदमुक्त कवि कहला रहे हैं, जबकि जिनके पास कविता नहीं है, वह जबर्दस्ती छंद लिखे जा रहे हैं और खुद को छंदयुक्त कवि कहलवा रहे हैं। ऐसे में कविता कैसे जिंदा रहेगी, इस पर विमर्श करने की आवश्यकता है।

कविता में छंद की उपस्थिति को लेकर हिमांशु त्रिपाठी ने अपनी फेसबुक वॉल पर एक महत्वपूर्ण आलेख पोस्ट किया है। पोस्ट रोचक ढंग से लिखी गई है। कविता में छंद कभी बहुत महत्वपूर्ण नहीं रहे,,,,,हाँ अत्यंत आवश्यक अवश्य रहे हैं। इतने आवश्यक की उस पर बात ही नहीं की गई। जैसे किसी को आमंत्रित करते समय यह नहीं कहा जाता कि कपड़े पहन के आना ,,,,या,,,,,,, खाना खिलाते समय किसी को नहीं कहते कि मुँह से खाइए।

छंदों को वेद पुरुष का चरण कहा गया है। चरण जिस पर चारों वेद खड़े हैं। प्राचीन भारतीय वांग्मय में छंद वैसे हैं जैसे भाषा। ज्योतिष, आयुर्वेद, औषधि, दर्शन , धर्म, उपदेश, कलाएँ,,,सब कुछ छंदबद्ध है। कोई महर्षि ऐसे न हुए जो ये कहते मिलें कि,,,, अगर ये छंद का बंधन नहीं होता तो 2-4 ग्रंथ और रच देता। यानी प्राचीन साहित्य में छंद कभी बंधन नहीं थे। विषय का वैविध्य और तत्व की गहनता में प्राचीन भारतीय साहित्य क्या कहीं से भी कमज़ोर है?

आधुनिक छंदमुक्त काव्य और प्राचीन-मध्यकालीन काव्य की तुलना से ही छंद की महत्ता या आवश्यकता समझी जा सकती है। काव्य के लिए छंद भाषा का ही एक तत्व हुआ करता है। अगर छंद नहीं होते तो ये समृद्ध भारतीय वांग्मय हम तक आ ही नहीं पाता,,,,,,कहीं दब जाता, नष्ट हो जाता।

प्राचीन समय में कितने ही सत्संग हुए होंगे, कितने अच्छे-अच्छे उपदेश दिए गए होंगे लेकिन हमारे पास तक क्या पहुँचा केवल छंद। प्राचीन भारतीय परंपरा में छंद वैसे ही हैं जैसे इंटरनेट। जब तक कंटेंट (तस्वीर, वीडियो, लेख) आप के फोन में पड़ा है, नितांत वैयक्तिक और क्षणभंगुर है। फोन टूटा , गिर गया, सब ख़त्म। लेकिन एक बार इंटरनेट की सहायता से ऑनलाइन पोस्ट कर दिए,,,,, फिर क्या ,,,,,वो कंटेंट शाश्वत हो गया। छंद भी ऐसे रहे हैं,,,,, कोई विचार, दर्शन, औषधि, विधि, कृषि-सुझाव आपके मस्तिष्क में है छंदयुक्त करके दुनिया को सौंप दीजिए।

हाँ,,, कुछ लोगों का तर्क होता है कि छंद में ढालना मुश्किल काम है,,,,,, विचार नहीं ढल पाते हैं,,,,,, भावना का सम्प्रेषण मुश्किल है,,,इसका सीधा उत्तर है ——–कवि की असफलता।

महर्षि वाल्मीकि ने नहीं कहा कि बहेलिये तनिक रुक जा ये तीसरे चरण का सातवाँ वर्ण गुरु नहीं हो रहा है। जैसे ही होता है तुझे श्राप दे दूँगा।

कवियों के लिए प्रतिभा-व्युत्पत्ति और अभ्यास की बात इसीलिए की गई है कि जब तक आप के भीतर भावनाएँ छंद में न आएँ तब तक काहे के कवि। अभ्यास करते रहिए,,,,, नहीं करेंगे तो हर घर में एक महाकवि पैदा हो जाएगा।

वास्तव में छंदमुक्त कविताएँ एक परिस्थिति जन्य घटना थी।

प्रिंटिंग प्रेस के अविष्कार के बाद कविताएँ प्रिंट रूप में आम लोगों तक पहुँचने लगीं। इसका परिणाम यह हुआ कि एक तो कविता सर्वसुलभ हुई और दूसरा कि साक्षात् कवि से कविता सुनने वाला प्रभाव जाता रहा।

एडगर डेल कहता है कि टेक्स्ट(अक्षर ) के रूप में किसी मूल वस्तु का केवल 10% ही सम्प्रेषणीय होता है। इस प्रकार श्रोताओं को स्पंदित करने वाली छंदयुक्त कविताएँ भी प्रिंट रूप में मौन पाठन के दौरान पाठक पर कविता का असली प्रभाव नहीं बना पाती हैं वे भावों को उस स्तर तक उद्वेलित नहीं कर पाती हैं,,,,,, कविता का निष्कर्ष ही पाठक के पास रह जाता है भाव नहीं।

यहीं से छंदमुक्त कविता का दरवाज़ा खुलता है। चूँकि कविता पाठक के व्यक्तिगत पाठ तक आ चुकी थी उसे बड़े भारी जनसमूह की भावना को लाइव उद्वेलित नहीं करना था इसलिए छंदमुक्त कविताओं की प्रासंगिकता बढ़ी। हालाँकि सीधे छंदमुक्त आने से पहले मुक्त छंदों/लयों/धुनों का भी दौर आया और छंदमुक्त कविता में छंदयुक्त कविता की तुलना में बात कहने की अधिक छूट मिली।

छंदमुक्त कविताओं के आने को बड़े लेवल पर सेलीब्रेट किया गया। उसे क्रांति के रूप में पेश किया गया। अब कविता लिखने की कोई टेक्निकल बाधा नहीं थी। अब प्रत्येक व्यक्ति कवि हो चुका था। जिसे हिंदी लिखनी आती थी वो भी कवि था, नहीं आती थी वह भी कवि था। छंदमुक्त की प्रासंगिकता यह थी विचार को कविता में नहीं ढाला गया बल्कि विचार को ही कविता कह दिया गया।

कविता के विकास की परंपरा के चार चरण निम्न हैं-

1-छंदयुक्त वाचन परंपरा
2-छंदयुक्त प्रिंट रूप
3-छंदमुक्त प्रिंट रूप
4-छंदमुक्त वाचन

ऊपर के विकास क्रम में ध्यान देने वाली बात है यह है कि प्रिंट रूप की परिस्थिति से उपजा छंदमुक्त-काव्य, वाचन तक आ गया। यानी छंदयुक्त का वाचन छंदमुक्त के वाचन तक चला आया लेकिन काव्य-वाचन का मुख्य सौंदर्य और उसकी आयु तो कविता की लय और छंद में बसती है जिनसे छंदमुक्त कवि-सम्मेलन नदारद रहते हैं।

एक बात तो साफ़ है कि प्रिंट रूप में छंदमुक्त कविता कितनी भी स्वीकार्य हो , वाचन के लिए तो ज़बरदस्ती है।

वर्तमान परिदृश्य की बात करें तो डेढ़-दो सौ साल प्रिंट के रूप में जन-जन तक पहुँचने वाली कविता ऑडियो- वीडियो माध्यम से पुनः श्रुति-वाचन परंपरा की ओर बढ़ रही है। विडियोज़ में कवि के पढ़ने का तरीक़ा, भाषायी प्रवाह,लय,अनुनाद और सीधे-सीधे कहें तो छंद पुनः आवश्यक हो गया। सोशल मीडिया और वर्तमान जनता ने बता दिया है कि छंदमुक्त कवियों को पढ़ा तो जा सकता है, देखा और सुना नहीं जा सकता।

अगर बेहतरीन कंटेंट वाले छंदमुक्त कवि ऐसे ही छंदों से भागते जाएँगे तो छंद में सिर्फ़ छंद ही छंद रह जाएगा,,, कंटेंट नहीं रह जाएगा। क्योंकि वर्तमान में छंद में कहने वाले कुछ भी कह रहे हैं। इसलिए जिनके पास कविता में रखने को बेहतरीन विचार हैं,,,, उनकी ज़िम्मेदारी है कि वे दौर को समझें, छंद में लौटें जिससे काव्य विचारयुक्त होने के साथ अमर भी हो सके।

अकादमिक जगत, वैचारिकी, पक्षधरता सबका अपना साहित्यिक महत्व है मगर अफ़सोस की बात तो यह है कि पिछले 50 सालों का लिखा छंदमुक्त काव्य सिर्फ़ पन्नों पर ही रह गया है ज़बान पर नहीं आया। यानी पन्ना ख़त्म और काम ख़त्म। आप अगर किसी की आम ज़िंदगी में कोट नहीं हो रहे हैं, आपकी पंक्तियाँ मौखिक स्थानांतरित नहीं हो रही हैं ,,,,आप सिर्फ़ दिमाग़ के हुए दिल के नहीं हुए,,,,, तो क्या ख़ाक हुए।

(हिमांशु त्रिपाठी की फेसबुक वॉल से)

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button