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मंचों पर ख़राब शायरी के लिए शायर भी जिम्मेदार: इक़बाल आज़र

साक्षात्कार: मशहूर शायर जनाब इक़बाल आज़र से बेबाक बातचीत, एक दौर में राजधानी देहरादून में खूब सजाई थी अदबी महफ़िल, 'लहू-लहू मंजर' नाम से पहला मजमुआ हुआ था प्रकाशित

राजधानी देहरादून में एक दौर में अदबी महफ़िल सजाने वालों में जनाब इक़बाल आज़र अपनी अलग पहचान रखते हैं। आज़र साहब का मानना है कि उत्तराखंड में साहित्य के प्रति सरकारी उदासीनता युवा पीढ़ी की उन्नति में बाधक बन रही है। साहित्य समाज का आईना होता है और वह अपने दौर की सच्चाई को सामने लाता है। साहित्यकारों से साक्षात्कार की श्रृंखला में पिछले दिनों shabdkrantilive.com ने देहरादून में टर्नर रोड स्थित आवास पर मशहूर शायर इक़बाल आज़र से मुलाकात की और उनकी साहित्यिक यात्रा से लेकर मौजूदा दौर में अदबी जगत की स्थिति को लेकर महत्वपूर्ण चर्चा की। इसी बातचीत के प्रमुख अंश प्रस्तुत हैं।

सवाल: आपकी साहित्यिक यात्रा कब, कहां और कैसे शुरू हुई?
जवाब: मुझे कविता और शायरी ईश्वर के तोहफे के रूप में मिली, क्योंकि घर में न तो अदबी माहौल था और न ही किसी को इसमें रुचि थी। जहां तक शुरुआत की बात है, तो पांचवीं कक्षा में अपने शिक्षक श्रद्धानंद शर्मा की प्रेरणा से 26 जनवरी के मौके पर निबंध लिखा। आठवीं कक्षा में तुकबंदियां करने लगा। वर्ष 1976 में पहली ग़ज़ल आकाशवाणी में पढ़ी और इंटरमीडिएट में आया, तो हमारे शिक्षक और मशहूर शायर डॉ. अश्वघोष ने मेरी रचनाएं देखी, तो और लिखने के लिए उत्साहित किया। महाविद्यालय में कविता से लेकर ड्रामा तक में हिस्सा लिया। देहरादून में पहली पोस्टिंग हुई और कवि सम्मेलन और मुशायरा पढ़ने लगा, हालांकि तब मेरी रचनाओं में हिंदी का ही प्रभाव ज्यादा था। वर्ष 1991 में जब मेरी पोस्टिंग मेरठ में हुई, तो वहां एक शायर इस्लाम मेरठी से मुलाकात हुई, तो उन्होंने कहा कि आपकी शायरी में हिंदी के शब्द बहुत हैं, जिससे आपकी भाषा खिचड़ी हो जा रही है। या तो हिंदी को अपनाओ या उर्दू शायरी शुरू करो। उनके कहने पर उर्दू शायरी शुरू की और फिर हिंदी की ग़ज़लें स्वत: कम होने लगी। हल्द्वानी जब पोस्टिंग हुई तो ‘लहू-लहू मंजर’ नाम से पहला मजमुआ प्रकाशित हुआ। इसके बाद 10 किताबें अब तक आ चुकी हैं।

सवाल: हिंदी और उर्दू ग़ज़ल को लेकर अक्सर विवाद होता रहा है। हिंदू शायरों का उर्दू को आगे बढ़ाने में क्या योगदान रहा?
जवाब: यह कुछ लोगों द्वारा बेकार का विवाद पैदा किया जाता रहा है। उर्दू में ग़ज़ल कहने वाले बहुत से हिंदू शायर हैं। फिराक गोरखपुरी को कौन नहीं जानता। चकबस्त को कौन नहीं जानता। कोई भी साहित्य किसी धर्म विशेष के अनुयाईयों का नहीं होता है। पूरे विश्व का होता है। यदि कोई हिंदू है, तो वह ग़ज़ल नहीं कह सकता क्या। उसने उर्दू सीखी है, इसलिए वह उर्दू में ग़ज़ल कह रहा है। वैसे भी आपने कोई ग़ज़ल कह दी और वह प्रकाशित हो गई, तो वह सबके लिए हो गई। हमारे धार्मिक ग्रंथ हैं। रामायण है गीता है, क्या कोई मुस्लिम यह नहीं पढ़ सकता। कुरान है, यह कोई और नहीं पढ़ सकता क्या?

सवाल: हिंदी और उर्दू ग़ज़ल में क्या अंतर है?
जवाब: कोई अंतर नहीं है। दोनों में वही विषय हैं। उसमें भी श्रृंगार रस की बात होती है। सियासत की बात होती है। समाज की बात होती है। दुनिया की बात होती है। प्यार-मोहब्बत की बात होती है। ग़ज़ल ग़ज़ल है। यदि कोई गीतिका कह रहा है, तो वह ग़ज़ल नहीं हुई, तो वह उसे गीतिका ही कहे, फिर ग़ज़ल न कहे। ग़ज़ल बंगाली में कही जा रही है। स्पेनिश में कही जा रही है। अंग्रेजी में कही जा रही है।

सवाल: मंचों में कविता का स्तर लगातार गिरता जा रहा है। इसके लिए आप कवियों को जिम्मेदार मानते हैं या आयोजकों को और इसमें क्या किया जा सकता है कि अच्छी कविता लोगों को सुनने को मिल सके?
जवाब: इसके लिए किसी एक को दोष नहीं दिया जा सकता। यह एक सामूहिक जिम्मेदारी है। लेकिन सबसे ज्यादा हम साहित्यकार जिम्मेदार हैं, क्योंकि हम ऐसे कार्यक्रम यदि स्वीकार ही नहीं करेंगे, तो आयोजक कामयाब नहीं हो पाएंगे। आयोजकों को क्या चाहिए कार्यक्रम की कामयाबी, उसे साहित्य से कोई लेना-देना नहीं होता। उन्हें पैसा इकट्ठा करना होता है और इसीलिए वह ऐसे शायर-शायरात को आमंत्रित करते हैं, जो मंच पर अदाकारी कर सकें, चाहे उन्हें शायरी आती हो या न आती हो। पब्लिक परफार्मेंस से प्रभावित होती है, जो लोग सुनने आते हैं, उनमें ज्यादातर में अच्छी शायरी की समझ नहीं होती है, बहुत कम लोग ही अच्छी शायरी को समझ पाते हैं। कोई तो शायरात को देखने के लिए ही चले आते हैं। वह तरन्नुम से गाती हैं, उन्हें गीत सुनना होता है। हालांकि इस सबके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार शायर ही हैं, क्योंकि उन्होंने ही अपना स्तर गिरा दिया है।

सवाल: पिछले दिनों उत्तराखंड में राज्य सरकार ने साहित्य गौरव पुरस्कार दिए, जिनमें कुछ पर विवाद भी हुआ। चयन समिति पर भी सवाल उठाए गए। निष्पक्ष चयन के लिए क्या होना चाहिए?
जवाब: ऐसे पुरस्कारों में गड़बड़झाला तो होता ही है। लेकिन पुरस्कार के लिए आवेदन तो मांगे ही जाने चाहिए। चयन समिति में भी ऐसे लोग हों, जो वाकई साहित्यकार हों, नाम के साहित्यकार न हों। यदि चयन समिति में अच्छे साहित्यकार होंगे, तो वह चयन भी अच्छा करेंगे, लेकिन ऐसा होता नहीं है। सच बहुत कड़वा होता है। वह कुछ कहेंगे, तो विवाद ही ज्यादा होगा। दूरदर्शन में ही लगा लो, ऐसे लोगों को बुलाया जाता है, जो चापलूसी करते हैं। उनकी कविता या शायरी से ही उनके स्तर का पता चल जाता है।

सवाल: उत्तराखंड में साहित्य का भविष्य आपको क्या लगता है। युवा लेखकों के बारे में आप क्या कहेंगे। पिछले दिनों साहित्य के क्षेत्र में प्रांतवाद को लेकर मेरी साहित्यकार असीम शुक्ल जी से बात हुई थी। वह भी पहाड़ी और गैर पहाड़ी को लेकर आहत थे, आप क्या कहेंगे?
जवाब: निश्चित रूप से प्रांतवाद सही नहीं है। क्या हम गढ़वाल में मैथलीशरण गुप्त को नहीं पढ़ रहे हैं, दिनकर को नहीं पढ़ रहे हैं। सुमित्रानंदन पंत को पूरे भारत में कौन नकार सकता है। दूसरी भाषा का साहित्य हम नहीं पढ़ रहे क्या? इसलिए प्रांतवाद का मुद्दा बेकार है। जहां तक युवा लेखकों की बात है तो वह बहुत अच्छी कविता लिख रहे हैं। अच्छी शायरी वह कर रहे हैं। इसलिए उत्तराखंड में साहित्य का भविष्य बहुत अच्छा है।

सवाल: पहले उत्तराखंड में राष्ट्रीय पर्वों पर सरकार की ओर से कवि सम्मेलन होते थे, मुशायरे होते थे, लेकिन पिछले दो-तीन साल से यह सिलसिला बंद है। उत्तराखंड आंदोलन में भी साहित्यकारों की अच्छी- खासी भूमिका रही। क्या आपको नहीं लगता कि साहित्य को एक गौण विषय मान लिया गया है?
जवाब: इसमें कहीं न कहीं सरकार की उदासीनता तो झलक ही रही है। साहित्य समाज का आईना होता है। इससे हम बहुत कुछ सीखते हैं। युवा पीढ़ी को भूत, वर्तमान और भविष्य का ज्ञान होना ही चाहिए। हमारे जितने धार्मिक ग्रंथ हैं, सब काव्य में हैं। कवि से अच्छा भविष्यवक्ता कोई हो ही नहीं सकता। कवियों ने ही कहा था, जब कलियुग आएगा, तो ऐसा-ऐसा होगा। इसलिए हमें अपने बच्चों को साहित्य से जोड़ना होगा और यदि ऐसा नहीं कर रहे हैं तो हम कहीं न कहीं उनकी उन्नति में बाधक बन रहे हैं। स्कूल-कॉलेज में साहित्य ही तो पढ़ाया जाता है और उसे पढ़कर ही आगे बढ़ते हैं। ऐसे में यदि बच्चे साहित्य से नहीं जुड़ेंगे, तो कैसे भविष्य की योजना बना पाएंगे। साहित्य ही उन्हें एक मार्ग दिखाता है। तो यह तो बहुत जरूरी है। यदि इसमें उदासीनता बरती जाती है, तो यह समाज के प्रति अन्याय है।

साक्षात्कारकर्ता:
लक्ष्मी प्रसाद बडोनी
दर्द गढ़वाली, देहरादून
9455485094

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