उत्तराखंड भाषा संस्थान की कार्यप्रणाली को लेकर उठ रहे सवाल
- सरदार पूर्ण सिंह की स्मृति में दिया जाने वाला पुरस्कार कहां गया, यदि इसके लिए किसी ने आवेदन नहीं किया तो इसका औचित्य क्या है, अकादमी के सदस्यों ने पंजाबी भाषी लेखकों को प्रेरित करने के लिए क्या प्रयास किए?

लक्ष्मी प्रसाद बडोनी
देहरादून: उत्तराखंड भाषा संस्थान और उसके अधीन स्थापित
विभिन्न अकादमियों की कार्यप्रणाली को लेकर अब सवाल उठाए जाने लगे हैं। यह सवाल तब और भी समीचीन हो गया, जब पंजाबी साहित्य के लिए दिए जाने वाले सरदार पूर्ण सिंह पुरस्कार के लिए इस बार किसी का नाम घोषित ही नहीं किया गया। सवाल उठा कि इस श्रेणी में क्या आवेदन आए ही नहीं। यदि नहीं आए तो इस अकादमी का औचित्य क्या है?
पृथक राज्य बनने के बाद विभिन्न भाषाओं के साहित्य और भाषा-बोली के उत्थान के लिए उत्तराखंड में हिन्दी अकादमी, उर्दू अकादमी, पंजाबी अकादमी और लोकभाषा व बोली अकादमी की स्थापना की गई थी। लेकिन इन संस्थाओं में सदस्य नियुक्त करने के लिए पारदर्शी व्यवस्था नहीं की गई। पिछले दिनों साहित्य गौरव पुरस्कार बंटे तो इन सवालों पर भी बहस चल पड़ी। जब पंजाबी साहित्य की श्रेणी में दिया जाने वाला सरदार पूर्ण सिंह पुरस्कार इस बार किसी को भी नहीं मिला, तो अकादमी के औचित्य पर ही सवाल उठने लगे। यहां बता दें कि वर्ष 2022 के लिए यह पुरस्कार 30 जून 2023 में आयोजित कार्यक्रम में गुरदीप सिंह को दिया गया था, जबकि अगले साल यह पुरस्कार प्रेम साहिल को मिला। सवाल यह है कि इस बार सरदार पूर्ण सिंह पुरस्कार हटा क्यों दिया। अकादमी में बैठे लोगों ने इस श्रेणी में आवेदन के लिए उत्तराखंड में रह रहे पंजाबी भाषी साहित्यकारों को प्रेरित क्यों नहीं किया। यदि किसी ने इस पुरस्कार के लिए आवेदन नहीं किया, तो इस पुरस्कार का औचित्य क्या है? ऐसे में सवाल उठने स्वाभाविक ही हैं।
ख़ुद पंजाबी ग़ज़लकार प्रेम साहिल पंजाबी अकादमी के कामकाज से नाखुश हैं। बकौल प्रेम साहिल उत्तराखंड में अच्छी खासी संख्या पंजाबियों की है, लेकिन उनकी भाषा और साहित्य के उत्थान के लिए पंजाबी अकादमी का काम धरातल पर नज़र नहीं आता। कोई भी ऐसा सेमीनार पंजाबी साहित्य अकादमी की तरफ से नहीं होता, जिससे उसके होने का औचित्य साबित हो सके। उन्होंने बताया कि कुछ समय पहले उन्होंने पंजाबी साहित्य की पुस्तकें खरीदने के लिए भाषा संस्थान को कहा था, लेकिन उन्होंने यह पुस्तकें खरीदी या नहीं, इस बारे में कोई जानकारी उन्हें नहीं दी गई। वह साफ कहते हैं कि यदि उत्तराखंड में पंजाबी भाषा के उत्थान के लिए कोई काम होना ही नहीं है, तो इसका क्या औचित्य है। उन्होंने कहा कि भाषा संस्थान का काम सिर्फ पुरस्कार बांटना नहीं होता, बल्कि भाषा का संरक्षण और उसे आगे बढ़ाना होता है। यही हाल अन्य अकादमियों का है।
दरअसल, भाषा संस्थान की स्थापना के बाद से ही कुछ स्वनामधन्य साहित्यकारों ने उस पर कब्जा कर लिया। इन्हीं लोगों में से कुछ लोगों को बारी-बारी संस्थान की विभिन्न समितियों का सदस्य नामित कर दिया गया। यह सदस्य किस आधार पर नामित हुए, इसके लिए कब नाम मांगे गए और इन नामों की संस्तुति किस आधार पर की गई। इसका पता तब चलता है जब अख़बारों में छपकर आता कि यह लोग इस समिति के सदस्य होंगे। किंतु-परंतु का कोई मतलब ही नहीं। हाल यह है कि संस्थान की तरफ से होने वाले बहुभाषी कवि सम्मेलन में भी वही तीन-चार चेहरे हर साल नजर आते। यही हाल संस्कृति विभाग की तरफ से होने वाले कवि सम्मेलन/मुशायरे का है। फिलहाल दो-तीन साल से तो कवि सम्मेलन भी करने बंद कर दिए हैं।