राम अवध की शायरी में है आम आदमी की पीड़ा
– राम अवध विश्वकर्मा के ग़ज़ल संग्रह 'तंग आ गया सूरज' की समीक्षा

ग्वालियर निवासी राम अवध विश्वकर्मा एक वरिष्ठ और महत्वपूर्ण ग़ज़लकार हैं। इस संग्रह ‘तंग आ गया सूरज’ से पहले उनके चार ग़ज़ल- संग्रह और आ चुके हैं। ग़ज़लों के अतिरिक्त उन्होंने अन्य विधाओं में भी लेखन किया है। उनका एक गद्य व्यंग्य भी आ चुका है तथा उन्होंने रुबाइयों पर भी उल्लेखनीय कार्य किया है। उनकी ग़ज़लों की कहन और शैली का एक अलग अंदाज़ है। उनकी व्यंग्यात्मकता का तो ये आलम है कि वह कभी तीखी हो जाती है, कभी चुटीली हो जाती है और कभी विनोदी रहते हुए भी अपनी गंभीरता प्रदर्शित किए बिना नहीं रहती। संग्रह की सार्थकता उसमें ज्ञापित समर्पण से ही दिखाई दे जाती है। इस संग्रह को उन्होंने कतार में अंतिम छोर पर खड़े उन तमाम व्यक्तियों को समर्पित किया है, जो आज भी अपने अधिकारों के लिए संघर्षरत हैं।
पुस्तक के आरम्भ में ‘मन की बात’ के अंतर्गत वे कहते हैं “ यह संग्रह सन 2019 से 2022 तक की कही गई ग़ज़लों का संकलन है. मेरा भरसक प्रयास रहा है कि पुस्तक में ऐसी ग़ज़लों को ही रखा जावे जिनमें सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, आर्थिक आदि विद्रूपताओं का लेखा-जोखा हो”। वस्तुतः वर्तमान की हिन्दी ग़ज़ल का स्वभाव ऐसा ही है ही। यह सामाजिक सरोकारों से जुड़ी है और जनसामान्य के दुख-दर्द को अभिव्यक्ति देती है।
आज हिन्दी ग़ज़ल समकालीन हिंदी कविता की एक प्रमुख विधा बन चुकी है। बड़ी संख्या में ग़ज़ल-संग्रह प्रकाशित हो रहे हैं। हिन्दी ग़ज़लें विभिन्न स्तर के पाठ्यक्रमों में पढ़ाई जा रही हैं और इन पर अनेक शोध कार्य हो भी चुके हैं और लगातार हो भी रहे हैं। यह सही है कि संग्रहों की बाढ़ में बहुत से संग्रह ऐसे ग़ज़लकारों के भी हैं जो अभी तक न तो ग़ज़ल के मिज़ाज को ठीक से समझ पाए हैं हैं और न उसके अनुशासन को ही। फिर भी उम्मीद की जा सकती है कि अगर वे प्रयासरत रहे तो सब कुछ सीख-समझ जाएँगे। साथ-साथ यह सुखद स्थिति भी है कि आज बहुत से ग़ज़लकार नए-नए बिम्बों और प्रतीकों के माध्यम से ग़ज़लों में अपनी बात कह रहे हैं और भाषा के स्तर पर भी नित नए प्रयोग देखने को मिल रहे हैं।
राम अवध विश्वकर्मा की ग़ज़लों की भाषा आमफ़हम है, जो बड़ी आसानी से हमारे आसपास के समाज से लेकर देश-दुनिया की तमाम स्थितियों, विसंगतियों, विडम्बनाओं और विरोधाभासों को असरदार ढंग से रूपायित करती है. उनकी अनूठी कहन का एक उदाहरण संग्रह की पहली ग़ज़ल के मतले में ही मिल जाता है :-
ख्वाजा तुम्हारे दर पे जो आया कभी नहीं
उसकी मुराद भी तो अधूरी रही नहीं
कुछ और उदाहरण :-
क्यों न हो कारोबार में घाटा
सारी पूँजी यहाँ उधार में है
कटा बैठे हम हाथ कहने पे उसके
बिना सोचे -समझे लगाकर अँगूठा
वक़्त आया और ठोकर मारकर चलता बना
एक ही पल में उसे लाचार कर चलता बना
नासमझ नहीं हूँ मैं जानता हूँ बाख़ूबी
बात हमको कहनी है कौन सी कहाँ साहब
आज छप रही और सोशल मीडिया पर धड़ल्ले से पोस्ट की जा रही ग़ज़लों में बड़ी संख्या में ऐसी ग़ज़लें भी हैं जिनपर ग़ज़लकार का यह शे’र बिलकुल फिट बैठता है :-
वो ग़ज़ल भी कोई ग़ज़ल है क्या न रदीफ़ जिसमें न क़ाफ़िया
है अजीब बात ये दोस्तो कि ग़ज़ल में वो भी शुमार है
रोज़मर्रा के इस्तेमाल में आते शब्दों को रदीफ़ बनाकर जब ग़ज़लकार ग़ज़ल कहता है तो वह कितनी ख़ूबसूरत बन पड़ती है, उसके एक -एक शे’र से ही उसका अंदाज़ा हो जाता है :-
उस बेवफा की बेरुख़ी देखी तो ये लगा
करने गए थे उससे मुलाक़ात खामोख्वाह
ऐसी ही एक और ग़ज़ल की रदीफ़ का कमाल देखें :-
लाख चाहूँ मैं उसे मुट्ठी में कर लूँ लेकिन
दो क़दम दूर ही रहता है मुक़द्दर कमबख्त
दिल में कुछ ऐसी बसी है चाय
लग रहा है ज़िन्दगी है चाय
इन ग़ज़लों की ख़ूबसूरती इसलिए भी बढ़ गई है कि उनमें रदीफ़ का निर्वाह बड़े अच्छे, सटीक और तर्कसंगत ढंग से हुआ है.
शे’र में जब किसी मुहावरे का प्रयोग होता है तो उसका सौन्दर्य भी बढ़ जाता है और उसका कथ्य और अधिक स्पष्ट हो जाता है. एक ऐसा ही प्रयोग है :-
वो माहिर है, शातिर है अपने हुनर में
चुरा लेगा काजल दिखे जो नज़र में
निराले अंदाज़ में व्यंग्य के माध्यम से अपनी बात कहने वाले ग़ज़लकारों में राम अवध जी शीर्ष पर हैं, कुछ शे’र देखें : –
खूबसूरत विकास का नारा
सिर्फ़ और सिर्फ़ इश्तहार में है
व्यवस्थाएं सभी वैसी की वैसी देश में होंगी
न डाकू देश छोड़ेंगे न पॉकेटमार जाएँगे
वो नाटक में गाँधी का किरदार लेगा
शहर का जो नामी-गिरामी है झूठा
गुलाब रंग में काले हों या सफ़ेद मगर
गुलों के बीच में ये भेदभाव ठीक नहीं
मुहावरेदार भाषा में इसी ग़ज़ल का एक और शे’र –
पता नहीं है वो बैठेगा कौन – सी करवट
अभी तो ऊँट का कुछ हाव-भाव ठीक नहीं
साधारण बोलचाल का एक शब्द जब राम अवध जी की ग़ज़ल की रदीफ़ बनता है तो उसके माध्यम से कथ्य के कितने आयाम खुलते हैं, देखने योग्य है :-
इस तरफ़ इंसान कड़की में
उस तरफ़ भगवान कड़की में
ज़िन्दगी रफ़्तार से दौड़े
है नहीं आसान कड़की में
हैं बहुत बीमार हफ़्तों से
घर में अम्मी जान कड़की में
भूल बैठे सब हँसी – ठट्ठा
गुम हुई मुस्कान कड़की में
क्या कहें बरसात से पहले
ढह गया दालान कड़की में
सामान्य से सामान्य प्रतीक भी ग़ज़लकार की निगाह में आए बिना नहीं रहता :-
जेठ- बैशाख की गर्मी में ही अक्सर सत्तू
लोग खाते हैं बड़े चाव से जी भर सत्तू
आसान ज़बान में कहा गया संग्रह का यह शे’र देखें जो कितने सुंदर तरीक़े से भरोसे का उदाहरण प्रस्तुत करता है :-
गुलों के साथ में रहते हैं ख़ार मुद्दत से
गुलों को ख़ार पे है ऐतबार मुद्दत से
राजनैतिक सन्दर्भ के ये व्यंग्य भी देखिए :-
कहती है सरकार ख़ज़ाना ख़ाली है
जनता से हर बार ख़जाना ख़ाली है
किस-किस का दुख-दर्द भला सरकार हरे
दुखिया सब संसार ख़ज़ाना ख़ाली है
हिन्दी ग़ज़ल का एक महत्वपूर्ण विषय पर्यावरण और प्रकृति भी है जिससे पूरा विश्व प्रभावित हो रहा है किन्तु गोष्ठियों-सेमिनारों से आगे बात बढ़ती नहीं दिखाई देती. नदियों की दुर्दशा पर ग़ज़लकार का एक शे’र द्रष्टव्य है :-
गन्दगी से गंगा को कर दिया दुखी सबने
दुख सुनाये अपना अब ये नदी कहाँ साहब
ग़रीबों के जीवन को नज़दीक से देखे बिना ज़िन्दगी की पूरी तस्वीर समझ में नहीं आ सकती, ग़ज़लकार एक शे’र में यह बात कैसे कहता है :-
ज़िन्दगी को पढ़ना हो,झुग्गियों में जावो फिर
इन किताबों में सच्ची ज़िन्दगी कहाँ साहब
राम अवध विश्वकर्मा जी के पास न तो विषय-वस्तु का अभाव है न उसे बेहतरीन शिल्प में ढालने के लिए ज़रूरी हुनर का. जीवनानुभवों ने उनकी शायरी को और समृद्ध बना दिया है. उनके शे’र इतनी सरलता, सहजता और रवानी के साथ आते हैं कि सीधे दिलों पहुँचते हैं. सामाजिक सरोकारों से जुड़ी हुई और ग़ज़ल के छंदानुशासन का अनिवार्यतः पालन करते हुए कही गई उनकी ग़ज़लें उनको महत्वपूर्ण ग़ज़लकारों में विशिष्ट स्थान प्रदान करती हैं. निश्चित रूप से हिन्दी साहित्य जगत में इस संग्रह का स्वागत होगा.
ग़ज़ल-संग्रह का नाम : तंग आ गया सूरज
समीक्षक: ओमप्रकाश यती
प्रकाशक : अयन प्रकाशन,नई दिल्ली. एच-89, बीटा-2, ग्रेटर नोएडा
पृष्ठ संख्या : 112
मूल्य : 340 रूपये