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दुष्यंत और अदम से कम नहीं रवि खंडेलवाल की शायरी

इंदौर निवासी रवि खंडेलवाल के ग़ज़ल संग्रह 'तज कर चुप्पी हल्ला बोल' की समीक्षा

मौजूदा दौर में ग़ज़ल काव्य की सबसे सशक्त विधा के रूप में उभरी है। बड़ी संख्या में युवा इस विधा की ओर आकर्षित हो रहे हैं। एक से बढ़कर एक ग़ज़ल संग्रह भी विभिन्न प्रकाशन संस्थानों से प्रकाशित हो रहे हैं। हाल ही में इंदौर निवासी रवि खंडेलवाल का ग़ज़ल संग्रह ‘तज कर चुप्पी हल्ला बोल’ भी श्वेतवर्णा प्रकाशन से छपकर आया है, जिसकी चर्चा हम आज कर रहे हैं।

इंदौर निवासी रवि खंडेलवाल ख़ालिस ग़ज़ल के शायर नहीं हैं। उन्होंने ग़ज़ल के साथ नवगीत, दोहे और मुक्तक के फ़न को भी पाबंदी से आजमाया है। उनकी समकालीन कविताओं का संग्रह उजास की एक किरण, मौत का उत्सव और अभी-अभी प्रकाशित नवगीत की किताब ‘कागज की देहरी पर’ की चर्चा काफ़ी पहले से हिन्दी पट्टी में हो रही है। हाल ही में प्रकाशित उनका ग़ज़ल संग्रह ‘तज कर चुप्पी हल्ला बोल’ भी अदबी जगत में चर्चा का विषय बना हुआ है। समीक्षित ग़ज़ल संग्रह रवि की गजलों का मक़बूल संकलन है, जिसमें अलग-अलग स्वभाव और तेवर की ग़ज़लें हैं, पर यह ग़ज़लें असल में परंपरागत ग़ज़लों से अलग-थलग हैं । इन ग़ज़लों की कथन भंगिमा, शैली विन्यास, विषय और विस्तार में भी काफी अंतर दिखता है । आमतौर पर शायरी को ख़ामोशी पसंद है। इसमें लताफ़त और नज़ाकत के गुण पाए जाते हैं, इसलिए शोर- शराबे वाली हिंदी की प्रगतिशील कविता कभी ग़ज़ल को काव्य विधा के तौर पर स्वीकार नहीं करती। बहरहाल, सच कहा जाए तो रवि खंडेलवाल की ग़ज़लें तेवरों के मामले में दुष्यंत और अदम गोंडवी से किसी मायने में कम नहीं है।

रवि खंडेलवाल की कृति ‘तज कर चुप्पी हल्ला बोल’ पहली बार गजल में ख़ामोशी के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ बुलंद करती है, और ग़ज़ल की यह माशूका अपने आरोपित स्मित मुस्कान से मारपीट पर उतर आती है । असल में शायर यूँ ही हल्ला बोल की तरफ उतर नहीं जाता बल्कि वो नुक्कड़ नाटकों वाली यह गीतात्मक शैली इसलिए अपनाता है कि अब ख़ामोश मिज़ाजी से यह काम चलने वाला नहीं है । देखें कुछ शेर –

तज कर चुप्पी हल्ला बोल
कस कर मुट्ठी हल्ला बोल
हर बैरी की दुश्मन की
कर दे छुट्टी हल्ला बोल
मेहनतकश के जीवन की
पी कर घुट्टी हल्ला बोल
ऐसा नहीं है कि संग्रह के हर शेर ऐसे ही हैं. बल्कि सामाजिक भेदभाव, विद्रूपता, राजनीति और मीडिया का चरित्र भाई भतीजावाद, लालफीताशाही धार्मिक तांडव, और शबो-रोज़ बढ़ते छल -बल भी उनकी ग़ज़लों के वर्ण्य विषय बने हैं । नई कहानी में जो अस्मिता, अस्तित्व और संघर्ष की बात आती है, हिंदी ग़ज़ल में वही बात रवि खंडेलवाल से शुरू होती है कुछ शेर देखें –

वो यक़ीनन मुल्क़ के गद्दार हैं जो
ग़ैर के परचम को लहराने लगे हैं

वो खा रहे हैं एकता की क़समें बारहा
हाथों में जिनके अपने-अपने इश्तिहार हैं

खून को इतना उबालो
हाथ में पत्थर उठा लो
उनकी ग़ज़लों की जो एक और विशेषता है वह यह है कि यह हमारी संवेदनाओं से सीधे स्पर्श करती हैं । एक बड़ा शायर वही होता है जिसकी शायरी में उसकी बातें अपनी होती हैं पर दुख जमाने का होता है । शायर यहाँ कई तकलीफों से गुज़रता है ।दुष्यंत इसके लिए दोहरी ज़िंदगी शब्द का इस्तेमाल करते हैं । उसे तकलीफ़ है कि धर्म के नाम पर भेदभाव क्यों है? इंसानियत क्यों ख़त्म होती चली जा रही है? आदमी कैसे भीड़ तंत्र का हिस्सा बन रहा है । लोग अपने स्वार्थ के लिए क्यों किसी की परवाह नहीं कर रहे हैं शायर कहता है –

कोई और नहीं आये हैं
अँधियारे के ही साये हैं

असलियत का आज गौना हो गया है
आपका व्यक्तित्व बौना हो गया है

देख कर क़त्ल भाईचारे का
दिल गली का दहल गया यारो

इस पुस्तक में प्रकृति भी है और प्रेम भी । प्रकृति हमेशा से प्रेम की सहचरी रही है । इसी प्रकृति के फल-फूल और पत्ते प्रेम के अवलंब बनते हैं. फिर ग़ज़ल से तो प्रेम का पैदाइशी रिश्ता रहा है । प्रायः यह बात लिख दी जाती है कि हिंदी ग़ज़ल में प्रेम नहीं है, वह उर्दू की रवायत में शामिल है । यह बात पूरी तरह दुरुस्त नहीं है । यह ठीक है कि हिंदी ग़ज़ल में इश्क़ और प्यार से अधिक घर-बार की बात है, पर इसका मतलब यह नहीं कि यहाँ प्रेम पूरी तरह से ख़ारिज है । हिंदी की पहली ग़ज़ल कबीर के ‘हमन है इश्क मस्ताना’ से शुरू होती है, फिर हिंदी गजल को प्रेम से कैसे ख़ारिज किया जा सकता है. रवि खंडेलवाल की गजलों में भी प्रेम और प्रकृति दोनों मौजूद हैं कुछ शेर मुलाहिजा हों –

साथ जिसका मिला नहीं यारो
आज उसका ही रास्ता देखा

आग नफ़रत की कैसे बुझेगी रवि
प्रेम जल आपने तो पिया ही नहीं

ये जो पैरहन है तुम्हारा हमारा
किसी ने दिया है किसी से मिला है

यहाँ पानी माँगो तो मिलता नहीं है
न माँगे लहू की नदी पा रहा हूं

ग़ज़ल चाहे जिस भाषा में लिखी गई हो उसे पावंदी पसंद है । शायरी को शब्दों की फ़िज़ूल खर्ची कभी नहीं भाती । यहाँ इजाफत के शब्द शायरी के अवगुण माने गए हैं । शायरी कम से कम शब्दों में सारगर्भित बात कहने की कला है । शायर रवि के ख़्याल एक तरल पदार्थ के रूप में हमारी आत्मा तक पैवस्त कर जाते हैं, कुछ शेर आप भी देखें –

डाक पहुँचेगी उस तरफ कैसे
जिस तरफ डाकिया नहीं जाता

ज़िन्दगी में ये माना उजाले न थे
थे अँधेरे मगर ऐसे काले न थे

चोट खा कर भी जान बाक़ी है
हौसला है उड़ान बाक़ी है

आमतौर पर ग़ज़ल लेखन में बहर की बात की जाती है । बहर ग़ज़ल का अंदरूनी आवरण है, सिर्फ इससे कोई ग़ज़ल मुकम्मल नहीं बन जाती. ग़ज़ल अच्छी होने के लिए ख़्याल की उम्दगी भी उतनी ही ज़रूरी है । हर ग़ज़ल में तरन्नुम, तकल्लुम,और मौसिकी का होना ज़रूरी है । ग़ज़ल में हम जिस बहर की बात करते हैं वो भी सिर्फ़ इसलिए है कि उसकी धुन बनी रहे । ग़ज़ल का क़ाफिया और रदीफ़ भी ग़ज़ल की मौसिकी में इजाफत करते हैं । रवि खंडेलवाल की ग़ज़लों से गुज़रते हुए भी यह साफ़ दिखता है कि सुखनवर ग़ज़लों की ख़ूबसूरती के प्रति कितना सचेत है । कुछ शेर द्रष्टब्य हैं –

डर के डर से बाहर निकलो
अब तो घर से बाहर निकलो

पेड़-पौधों का नहीं आधार होता
साँस लेना भी यहाँ दुश्वार होता

कल महल था आज खंडहर सा लगे
क्या हुआ हर खेत बंजर सा लगे

इन दिनों हिंदी ग़ज़ल की भाषा को लेकर पर्याप्त बहस चल रही है । हिंदी ग़ज़ल के नाम पर हिंदी-संस्कृत के कठिन और अबोध शब्दों को ग़ज़ल में पिरोया जा रहा है । इससे ग़ज़ल की न मात्र संप्रेषणीयता ख़त्म हो रही है बल्कि उसकी रवानी भी ख़त्म हो रही है । रवि खंडेलवाल अपनी ग़ज़लों में उन्हीं शब्दों का इस्तेमाल करते हैं, जो हमारी रोज़मर्रा की ज़रूरत का हिस्सा है । वह अपनी ग़ज़लों में किसी आरोपित शब्द को नहीं लेते । उनकी ग़ज़लें आवाम की ज़ुबान में कही गई हैं, इसलिए उनकी एक ही ग़ज़ल में टिमटिमाना जैसे देशज शब्द भी हैं , अंधविश्वासी जैसे हिंदी के शब्द भी और ज़ालिम जैसा उर्दू फारसी का लफ़्ज़ भी है. उनके कई शेर में अँग्रेजी के प्रचलित शब्दों का भी खूबसूरती से उपयोग हुआ है । ग़ज़ल अपनी इसी समरसता, संप्रेषण और भाषाई लालित्य के कारण आसानी से याद हो जाती है, और यही बात हिंदी कविता के परम्परावादी पैरोकार को गले नहीं उतरती । तमाम विरोध-अवरोध और आरोप के बावजूद भी हिंदी ग़ज़ल इसलिए आगे बढ़ रही है कि उनके पास रवि खंडेलवाल जैसे शायर हैं । आज अगर ग़ज़ल शोध का हिस्सा है, पाठ्यक्रम में शामिल है ग़ज़लकारों पर स्वतंत्र किताबें लिखी जा रही हैं । पत्रिकाओं के ग़ज़ल विशेषांक आ रहे हैं तो इसने यह अपने दम-खम पर सब हासिल किया है । क्योंकि ग़ज़ल के साथ आलोचकीय उदासीनता हमेशा से बनी रही है । यही कारण है कि हिंदी साहित्य के इतिहास लिखने वाले आलोचक हिंदी कविता परंपरा में ग़ज़ल का ज़िक्र भी करने से डरते हैं । हिन्दी ग़ज़ल के अधिकतर आलोचक वही हैं, जो ग़ज़ल के शायर भी हैं, इसलिए उनकी आलोचना उनके सम्पर्क के लोगों तक सिमट कर रह जाती है । इसी संकलन में रवि खंडेलवाल का एक शेर भी है –

एक सूरज क्या ढल गया यारो
दिन का हुलिया बदल गया यारो
ग़ज़ल इसी सूरज के समान हिंदी कविता में जगमगा रही है ।1975 में जब दुष्यंत की मृत्यु हुई तो सारिका पत्रिका ने अपने आवरण पर इसी सूरज को डूबते हुए दिखाया था. असल में दुष्यंत के बिना हिंदी ग़ज़ल पुंश्ल और पंगु है । अगर दुष्यंत नहीं होते तो हिंदी ग़ज़ल एक विधा की तरह कभी पहचानी नहीं जाती, यह बात निर्विवाद है.
आज हिंदी ग़ज़ल में विज्ञान व्रत, बालस्वरूप राही, राजेश रेड्डी, कुंवर बेचैन अनिरुद्ध सिंहा, डॉ. भावना, मधुवेश, हरेराम समीप,चांद मुंगेरी, नूर मुहम्मद नूर, राहुल शिवाय, अभिषेक कुमार सिंह, अविनाश भारती, के. पी अनमोल, सुभाष पाठक ज़िया , ए. एफ नज़र, ओमप्रकाश यती, रामनाथ बेखबर,रवि खंडेलवाल जैसे कई शायर हैं जिनकी मौजूदगी हिंदी ग़ज़ल को आश्वस्त करती है ।
ग़ज़ल कविता की तरह शेर को स्वतंत्र विचरण करने नहीं देती. यहाँ पाबंदियों का सामना करना पड़ता है । वजन और बहर की पाबंदी, काफ़िया और रदीफ़ की पाबंदी, शब्दों के सजाने संवारने की पाबंदी और सबसे बड़ी बात है कि एक मुकम्मल शेर की पाबंदी ।इन सबसे ग़ज़ल एक मुश्किल फ़न बन जाता है । एक अरबी कहावत है कि जिसे सौ शेर याद हों वही एक शेर लिखकर देखें.
कोई भी शेर तब मुकम्मल बनता है,जब वह फ़न और बारीकियों के साथ एक मुकम्मल ख़्याल पेश करता है। जब शेर पढ़ कर पाठक थोड़ी देर रुक जाता है, उस शेर में खो जाता है और शेर जब उसके दिलो-दिमाग़ पर सवार हो जाता है तो वह उसे भूल नहीं पाता, तो वाकई ऐसा ही शेर हमेशा के लिए ज़िंदा जावेद बन जाता है । रवि खंडेलवाल के शेर भी ऐसे ही हैं –

बेशक बनके सूरज निकलो अच्छा है
मेरे घर से होकर गुज़रो अच्छा है

कहना ना होगा कि तज कर चुप्पी हल्ला बोल की ग़ज़लों के साथ रवि खंडेलवाल ने जो परंपरा विकसित की है आने वाले समय में ये विरोध और बोध की ग़ज़लें उनकी शनाख़्त बन जाएँगी।
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समीक्षक डॉ. ज़ियाउर रहमान जाफरी (प्राध्यापक हिंदी), ग्राम /पोस्ट- माफी, वाया -अस्थावां जिला नालंदा, बिहार 803107

मोबाइल: 9934847941

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समीक्षित कृति – तज कर चुप्पी हल्ला बोल (ग़ज़ल संग्रह)
ग़ज़लकार – रवि खण्डेलवाल, इन्दौर
प्रकाशक – श्वेतवर्णा प्रकाशन 8447540078

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