दलितों की ज़िंदगी का आईना है आरपी सोनकर की शायरी
शायर आरपी सोनकर के ग़ज़ल संग्रह 'ज़िंदगी अनुबंध है' की समीक्षा

मुझे आर.पी.सोनकर जी के नवीन ग़ज़ल- संग्रह ‘ज़िंदगी अनुबंध है ‘ के विषय में मालूम हुआ। आज जब वह पुस्तक मेरे हाथ में है तो मुझे इसके विषय में आप सबसे कुछ खास बिंदुओं पर चर्चा करने की उत्कंठा हुई। इस ग़ज़ल -संग्रह पर चर्चा करने से पहले मुझे लगता है कि यदि हम ग़ज़ल के इतिहास और स्वरूप पर एक विहंगम दृष्टि डाल लें तो यह उचित होगा।
ग़ज़ल की विषय-वस्तु की बात करें तो हम देखते हैं कि शुरुआती दौर की ग़ज़लें प्रेम पर आधारित थीं जो धीरे-धीरे महबूब से होकर ईश्वरीय प्रेम तक पहुँच गईं और सूफीवाद से प्रेरित ग़ज़लें रची गईं। चूँकि साहित्य सामाजिक परिस्थितियों से अछूता नहीं रहता इसीलिए आज ग़ज़ल का फ़लक विस्तृत हो गया है। आज शायर न केवल इश्क़ और ईश्वर ही, अपितु सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक एवं अन्य सामयिक विषयों पर चेतना और परिवर्तन भी अपनी शायरी का विषय रखते हैं।
शायर आरपी सोनकर के ग़ज़ल संग्रह ‘ज़िंदगी अनुबंध है’ नाम से ही प्रतीत होता है कि शायर ने ज़िंदगी में अनेक विसंगतियों को बहुत नज़दीक से देखा और जाना है, जिनके साथ जीवन में समझौता एक अनिवार्य शर्त है। इन्हीं समझौतों के अंतर्गत तल्ख़ अनुभव होना भी स्वाभाविक है, जिस कारण उनका तख़ल्लुस ‘तल्ख़’ उचित ही है। निस्संदेह उनकी शायरी में भी ऐसे ही तल्ख़ जज़्बात उभरे होंगे।
यह ग़ज़ल संग्रह शायर ने अपने माता-पिता ,पत्नी और समान विचारधारा के लोगों को समर्पित किया है। यहीं से उनके सुसंस्कार परिलक्षित होते हैं कि अपनी नींव को भूलना नहीं और व्यर्थ की वाहवाही लूटने के लिए भीड़ एकत्र करनी नहीं। इस ग़ज़ल-संग्रह को एक बार सरसरी तौर पर पढ़ने से यह स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने यह तख़ल्लुस मात्र लोगों का ध्यान आकर्षण करने के लिए ही नहीं रखा है। समाज में फैली विसंगतियों से त्रस्त उनके दिल की यह अचानक उठी हुई आवाज़ नहीं, बल्कि बचपन से हर क़दम, हर वर्ग में जो उन्हें देखने को मिला, उससे उत्पन्न ज़ख्मों का दर्द है। बात चाहे तथाकथित उच्च वर्ण बनाम दलित की हो, अभिजात्य बनाम सर्वहारा की हो; स्त्री- पुरुष विभेद की हो; शिक्षित- अशिक्षित की बात करें या फिर जनता और नेता की ; तल्ख़ साहब ने ज़िंदगी के हर पहलू पर गौर किया और पाया कि ईश्वर ने चाहे सबको समान बनाया है लेकिन ईश्वर की महत्त्वपूर्ण कृति इंसान ने ही इंसानों का वर्गीकरण कर दिया। प्रकृति- प्रदत्त साधन और सुविधाओं पर भी कुटिल-मानव ने अपना आधिपत्य जमा लिया। सरल हृदय और भोले इंसान जी-तोड़ परिश्रम के बावज़ूद भी कमज़ोर और पिछड़े रह गए। सबसे बड़ी विडंबना है कि जो पुरुष दूसरों की तुलना में स्वयं को मज़बूर समझता है, वही पुरुष नारी को अबला और तुच्छ समझकर उसका मानसिक और शारीरिक शोषण करता है। ये सभी सामाजिक -विसंगतियाँ समाज में इस क़दर घर बना बैठी हैं कि दूर- दूर तक उनका इलाज़ या निराकरण दिखाई नहीं देता जो शायर के ज़ख़्मों को हरा रखता है और वक़्त-बेवक़्त उनके जज़्बात का शब्दों के माध्यम से catharsis कराता है।
मैं तल्ख़ साहब के चुनिंदा अशआर से अपनी बात स्पष्ट करना चाहूँगी। उनके ग़ज़ल- संग्रह की पहली ग़ज़ल के चंद अशआर ही समाज में फैले षड्यंत्र का पर्दाफाश करते नज़र आते हैं, जहाँ भोले-भाले लोगों को फुसलाकर अपना सामाजिक और राजनैतिक स्वार्थ पूरा किया जाता है।
हरदम दिल का ताड़ बनाया जाता है,
मानव-मानव को लड़वाया जाता है।
आगे देखिए ..
राजनीति में रहज़न को हर दिन यारों,
सूरज- तारा -चाँद बनाया जाता है।
और अंत में ..
‘तल्ख़’ तुझे अधिकारों से वंचित करके,
अच्छे दिन का ख़्वाब दिखाया जाता है।
शिक्षा के क्षेत्र में दलगत एवं वर्गीकृत समाज पर राजनीति करने वाले लोगों को देखकर उनका हृदय आहत हो कह उठता है..
राह का काँटा न कोई ‘भील’ ‘अर्जुन’ का बने,
‘द्रोण’ को संसद में उकसाने लगे हैं आजकल।
ज्यों-ज्यों पाठक धीरे-धीरे आगे बढ़ता है तो देखता है कि शायर वंचित वर्ग को न केवल उनके साथ हुई साजिशों और अधिकारों के हनन के विषय में बताते हैं बल्कि उन्हें अधिकारों के प्रति जागृत करने का प्रयास भी करते हैं..
ख़ामोशी से तकलीफ़ों को सहना छोड़ दो प्यारे,
होठों को सिल कर रक्खोगे कब तक आख़िर कब तक।
अगर मिल जाए अवसर बहुजनों को,
बताना ‘तल्ख़’ से किसकी सदी है।
भूख की विद्रूपता और भुखमरी खत्म करने की सरकारी कवायद पर तीखा एवं व्यंग्यात्मक प्रहार व सरकारी तंत्र के दोगलेपन की पोल खोलते हुए तल्ख़ साहब के अशआर देखिए..
भूख की चिंगारियाँ जब बन गईं ज्वालामुखी,
हंसिनी पत्थर को भी मोती समझ कर खा गई।
और..
लग रहा है देश से अब भुखमरी मिट जाएगी,
फ़ौज गिद्धों की यहाँ आयात होकर आ गई।
भूख का भयानक मंज़र देखकर किस का हृदय न दहल जाएगा लेकिन वंचित वर्ग सिर्फ़ सहन करने के अतिरिक्त कुछ नहीं कर पा रहा। कल्पनातीत शायरी से शोषित वर्ग के प्रति हो रही ज्यादती के लिए उत्पन्न क्षोभ और क्रोध की ऐसी ज़बरदस्त अभिव्यक्ति वही शायर कर सकता है जिसने इसे गहराई से अनुभव किया हो।
भ्रष्टाचार के विभिन्न रास्ते अपनाकर प्रसिद्ध हुए लोगों का स्तुतिगान करने को त्याज्य मानते हुए तल्ख़ साहब सिर्फ़ और सिर्फ़ समाज से प्रताड़ित, दलित, हाशिये पर रह गए लोगों के जीवन की विषमताओं की ही बात करना चाहते हैं..
‘तल्ख़’ नहीं लिखती है जिनके बारे में दुनिया,
क्यों न उन्हीं की बात लिखूँ मैं आजमगढ़ का हूँ।
दलितों की अभिशप्त ज़िंदगी से तिलमिलाकर शायर को संविधान ही इनका सरमाया लगता है। इसके लिए वह बाबा अम्बेडकर साहब को याद करते हुए कहते हैं..
कारवाँ कोई नहीं है रास्ता कोई नहीं,
अब सिवा अम्बेडकर के रहनुमा कोई नहीं।
स्त्रियों के प्रति हो रही ज्यादती से भी तल्ख़ साहब अनजान नहीं हैं। नारी के प्रति हो रहे ज़ुल्म की आवाज़ बनी ‘मलाला’ की पैरवी करते हुए वह कह उठते हैं..
औरतों पर ज़ुल्म की अंतिम विदाई के लिए,
हर लड़ाई में ‘मलाला’ चाहिए तो चाहिए।
नारी को श्रद्धा और देवी का अवतार मानने वाले सफ़ेदपोश लोगों की दोहरी मानसिकता के प्रति भी शायर की तल्ख़ी उभर आई है। उनका एक नज़रिया देखें..
यहाँ नारी की गरिमा बस किताबों तक सीमित है,
जलाते हैं बहू घर की जो कन्यादान लेते हैं।
अगर पैदा हुआ बेटा तो बस खुशियाँ ही खुशियाँ हैं,
हुई बेटी तो जैसे माँ की किस्मत फूट जाना है।
राजनीति करने वाले लोग, पैसे और ताकत के बल पर बने तथाकथित नेता ..इनको न देश से मतलब है, न जनता से और न सच्चाई से। एक बानगी देखिए..
भीम ,अर्जुन और युधिष्ठिर देश की संसद में है,
निर्वसन निर्वाय नित सच की लुगाई है तो है।
दलित एवं शोषित वर्ग की आवाज़ को बुलंद करते हुए सरकार एवं अभिजात्य वर्ग को ललकारने की गूँज भी ‘ज़िंदगी अनुबंध है ‘, में सुनाई पड़ती है..
राख हो जाएगी बेशक सोच की ऊँची उड़ान,
पेट की भी आग में कुछ देर जल कर देखिए।
और देखिए..
सदा- ए- हक़ उठाना ग़र बगावत है तो सुन ज़ालिम,
मैं बागी हूँ, लो अपने ज़ुर्म का इक़रार करता हूँ।
राजनीति के अहम ज्वलंत मुद्दे ‘धर्मांतरण’ से भी शायर अछूते नहीं हैं। तभी तो शायर नेताओं को वोट के लिए प्रताड़ित लोगों को लुभाते हुए देखते हैं तो चिंतित होकर कटाक्ष कर बैठते हैं..
रहूँ कमतर मगर हिंदू रहूँ मैं,
इनायत आपकी कुछ कम नहीं है।
विडंबनाओं, विषमताओं, अपेक्षाओं, उपेक्षाओं के मध्य हाशिये पर रहे वंचित एवं शोषित वर्ग के हृदय में आशा का संचार करते हुए चंद मिसरे..
जानता हूँ ज़ुल्म तेरा है सुनामी लहर सा,
फिर भी क़श्ती को हमारी रहनुमाई है तो है।
रुक नहीं सकती कभी रफ़्तार नव- निर्माण की,
साधना की सर्जना से आशनाई है तो है।
धर्म के और कर्मकांड के नाम पर होती विसंगतियों पर उनके विचार कुछ ऐसे हैं..
दीन -दुखी जब झोपड़ियों में रहते हों,
भगवन को फिर मंदिर और शिवाला क्यों।
तल्ख़ साहब की नज़र से ज़िंदगी का कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं रहा है। समाज का सही आईना व मज़बूर लोगों की आवाज़ उठाने वाला मीडिया भी आज उनके लिए अपनी विश्वसनीयता खो चुका है।
नज़र से गिरती ये मीडिया है सफ़ेद कपड़ों में माफ़िया है,
सुधार लाना तो लाज़मी है, मगर जतन सब धरे-धरे हैं।
हाशिये पर आए वंचित एवं दलित वर्ग को चेतावनी देते हुए शायर उन्हें शिक्षित एवं आत्मनिर्भर बनने का मशविरा देते हैं क्यूँकि मुफ़्त राशन देने वाले उन्हें उनका उचित अधिकार दिलाकर अपने समकक्ष नहीं होने देंगे।
पढ़- लिखकर इंसान बनो तुम, अपना दीपक आप बनो,
ऊपर वाला दुख हर लेगा ,नामुमकिन, नामुमकिन है।
वोटों के बदले तू उनसे, गेहूँ- चावल पा लेगा,
लेकिन वाज़िब हक पा लेगा, नामुमकिन, नामुमकिन है।
तल्ख़ साहब की शायरी को जितना पढ़ेंगे, पाठक भी वंचित लोगों की मुश्किलों से रुबरु होता हुआ अनुभव करेंगे। वह भी उनके दुख का साथी बनकर उनको कुछ रोशनी दिखाना चाहेंगें। ज़िंदगी के कटु अनुभवों के बीच शायर को भी इंसान होने के नाते प्यार की नैसर्गिक एवं सुखद अनुभूति होती है जिन्हें वह इस प्रकार अभिव्यक्त करते हैं..
मज़ा जो कुछ भी है यारों! मुहब्बत की गली में है,
मुहब्बत के सिवा कुछ भी कहाँ इस ज़िंदगी में है।
अपने जीवन के कटु अनुभवों के मध्य इश्क़ का इक़रार बताता है कि शायर वह कोई पत्थर नहीं है जिसके प्यार का स्रोत सूख गया हो। उसके हृदय में भी धड़कन मौजूद हैं जो फुर्सत के कुछ पल चुरा कर उसे संगीत सुनाती है।
तल्ख़ साहब की अगर शैली की चर्चा करें तो पाएँगे कि उनकी शायरी में बिम्बों, उपमाओं , प्रतीकों आदि का प्रयोग न होकर सीधी-सपाट शैली का प्रयोग हुआ है। इसका कारण मुख्य रूप से शोषित वर्ग की तीव्र भावनाओं का ज्वार उठना है जहाँ बनावट या दिखावे की गुंजाईश ही नहीं रहती। अपने जज़्बात को दृढ़ निश्चय के साथ पाठकों के दिल और दिमाग तक पहुँचा कर उनके विचारों में सकारात्मक परिवर्तन लाने का प्रयास ही शायर का उद्देश्य है और वह इसमे सफल रहे हैं। इसके लिए उन्हें बहुत बहुत बधाई व साधुवाद।
ग़ज़ल संग्रह: ज़िंदगी अनुबंध है
शायर: आर. पी. सोनकर ‘तल्ख़ ‘, मेहनाजपुरी
प्रकाशक. .विप्लव प्रकाशन, लखनऊ
प्रथम संस्करण: वर्ष 2023
मूल्य : रू. 250/-
समीक्षक..डॉ. अलका शर्मा
(पूर्व प्राचार्या, आदर्श महिला महाविद्यालय
भिवानी, हरियाणा)