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शैलेन्द्र शांत की लोकानुभव से सराबोर स्वतःस्फूर्त कविताएँ

कवि शैलेन्द्र शांत उत्तरप्रदेश के बलिया जिले के मनियर नामक कस्बे से आते हैं और कालांतर में कोलकाता आकर बस जाते हैं। इस बात को यूं कहना अधिक युक्तिसंगत होगा कि उच्च शिक्षा और नौकरी की ख़ातिर उन्हें अपना घर – गाँव छोड़ना पड़ता है ।

यहाँ यह कहना ज़रूरी है कि आज भी उन्हें अपना कस्बा मनियर उतना ही प्रिय लगता है जितना कि पहले लगता था ।
गाँव – कस्बे से महानगर में पलायन को अपने समय की त्रासदी ही कहा जाएगा।

शैलेन्द्र शांत की कविताओं की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे उनके कवि व्यक्तित्व के अनुरूप ही सहज हैं । वहाँ किसी प्रकार का बनावटीपन अथवा बड़बोलापन नहीं है ।
इनकी कविताएँ पूर्णतः स्वतःस्फूर्त हैं और लोक के जनजीवन में घुली – मिली हैं ।

मैंने ‘ कृति ओर ‘ पत्रिका के अपने सम्पादन काल में ‘ स्थायी स्तम्भ ‘ कविता आज ‘ में कवि शैलेन्द्र पर लिखते हुए उनके उक्त वैशिष्ट्य पर लिखा भी है ।

कवि शैलेन्द्र शांत की खूबी यह भी है कि वे चालू फैशन से प्रभावित नहीं होते । वही करते हैं जो इन्हें करना होता है ।
वे अक्सर मनुष्य , प्रकृति या जीवन से सम्बद्ध कोई जीवंत प्रसंग उठाएंगे और ऐसी कविता लिखेंगे कि सीधे दिल में उतर जाए । और न केवल दिल , बल्कि दिमाग़ को भी झंकृत कर डाले ।

कवि शैलेन्द्र शांत के अब तक छः कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। उन संग्रहों के टाइटिल इस प्रकार हैं : ‘ जनपथ ‘ , ‘ मैं हूँ तुम्हारी कविता ‘ , ‘ अपने ही देश में ‘ , ‘ चकाचौंध का अँधेरा ‘ , ‘ भरोसे की बात और अन्य कविताएँ ‘ तथा अंत में ‘ सुने तो कोई ‘ ।

शैलेन्द्र जी की दृढ़ मान्यता है कि कविता मनुष्य को इंसान बनाती है । ऐसा संवेदनशील इंसान जो दूसरों के दुख – दर्द को शिद्दत से महसूस करता है । जीवनमूल्यों में विश्वास करता है और श्रमी की शक्ति के महत्व को जनता – समझता है।

जब इंसानियत शर्मसार होने लगती है तब शैलेन्द्र सवाल खड़ा करते हैं :

कौन कर रहा था
उसे शर्मसार
बार – बार
जी , मैं इंसानियत की ही
कर रहा हूँ बात
धर्म
राजनीति
या कि बाज़ार !

****

यह सच है धर्म और राजनीति की अवांछित संतान है – ‘ साम्प्रदायिकता ‘ । और यदि बाज़ार भी उसमें शामिल हो जाये तब तो इंसानियत को जार – जार रोना ही पड़ता है । कवि शैलेन्द्र शांत की कविताओं की ख़ास खूबी यह है कि वे लोकानुभव से उपजी हैं अर्थात् लोक से गहरे स्तर पर जुड़ी हैं । वे अपनी ‘ ,ज़िन्दगी ‘ कविता में कहते हैं :

ज़िंदगी :

इस किताब के पन्ने
पलटने नहीं पड़ते
फड़फड़ाने लगते हैं
खुद – ब – खुद
नित नए सबक के साथ।

****

समय और सामाज के साथ – साथ कवि शैलेन्द्र की अधिसंख्य कविताएँ मनुष्य – केंद्रित है। और यही बात शैलेन्द्र शांत की कविताओं को महत्वपूर्ण बनाती है। मनुष्य के पक्ष में लिखी उनकी ‘ तो मुश्किल होगी ‘ कविता रेखांकित करने योग्य है । वे अभिजन वर्ग को चुनौती देते हुए लिखते हैं :

यह ज़मीन तुम्हारी है
आसमान भी तुम्हारा ही
विचरा करो यत्र – तत्र – सर्वत्र
खाओ – पीओ – अघाओं
मौज – मस्ती मनाओ

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तुम्हे मुबारक तरह – तरह की बोटी
सबकुछ रखो अपने पास
पर छोड़ दो हमारे हिस्से
कम से कम दो जून की रोटी
यह भी छीनोगे
तो मुश्किल होगी ।

तो मुश्किल होगी में एक ‘ चेलेंज ‘ है। आख़िर किसी बात की इंतेहा होती है । कहा भी गया है – ‘ मरता क्या नहीं करता ! ‘

यह कवि अपना विश्वास अंत तक बनाये रखता है। हताशा और निराशा को पास नहीं आने देता।अपनी ‘ भरोसे की बात ‘ कविता में वह कहता है :

घुप्प अँधेरे में
जुगनुओं का साथ है ।

****

और मज़े की बात यह भी है कि –
टिमटिमाते तारों से
अभी खाली नहीं हुआ है आकाश
यह भरोसे की बात है।

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यदि कवि शैलेन्द्र शांत का व्यंग्यबोध देखना हो तो इनके कविता संग्रह ‘ सुने तो कोई ‘ की कतिपय कविताओं को पढ़ जाइए । बस , यूँ समझिए – ‘ घाव करे गंभीर ।’

अलावा इसके , कवि शैलेन्द्र को ‘ शब्द ‘ – ‘ चुप्पी ‘ और ‘ स्पेस ‘ का पूरा – पूरा ज्ञान है । इसके फलस्वरूप ‘ कहन ‘ और ‘ कथ्य ‘ का सुंदर निर्वाह इनकी कविताओं में देखते ही बनता है।
अंत में , कवि शैलेन्द्र शांत के रचनात्मक उज्ज्वल भविष्य की कामना करते हुए मुझे उनके आगामी प्रकाशन की उत्सुकता से प्रतीक्षा रहेगी ।

– डॉ.रमाकांत शर्मा

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