ऐसे भाषा संस्थान पर लानत, जिसे पचासों साल से सृजन में लगे साहित्यकार का नाम और काम नहीं मालूम, करना पड़ रहा आवेदन
उत्तराखंड में भाषा संस्थान की ओर से रेवड़ियों की तरह वितरित साहित्य गौरव पुरस्कार बने चर्चा का विषय

लक्ष्मी प्रसाद बडोनी
देहरादून: उत्तराखंड में हाल ही में वितरित साहित्य गौरव पुरस्कार को लेकर कथित गड़बड़झाला चर्चा का विषय बना हुआ है। चर्चा अब तो इसे लेकर भी हो रही है कि साहित्य की दीर्घकालीन सेवा के लिए भी यदि आवेदन करना पड़े, तो लानत है ऐसे भाषा संस्थान पर, जिसे पचासों साल साहित्य में खपा देने वालों का नाम और काम ही नहीं मालूम। धन्य हैं, वह स्वनामधन्य साहित्यकार, जो भाषा संस्थान से जुड़े हुए हैं और चाटुकारों को उपकृत कर रहे हैं।
दरअसल, किसी भी राज्य में स्थापित साहित्य अकादमी या भाषा संस्थान का काम है कि वह अपने राज्य के साहित्यकारों का रिकॉर्ड रखे। उनके साहित्य को लोगों तक पहुंचाने को कार्ययोजना बनाए। विभिन्न राज्यों की साहित्य अकादमी क्या कर रही हैं, यह तो वहां से जुड़े साहित्यकार ही बता सकते हैं, लेकिन उत्तराखंड भाषा संस्थान की दशा और दिशा इस मामले में उचित नहीं कही जा सकती।
पिछले दिनों जिस तरीके से उत्तराखंड साहित्य गौरव पुरस्कार रेवड़ियों की तरह बंटे, उससे पुरस्कारों पर सवाल उठना स्वाभाविक है। हैरत की बात है कि एक किताब वाले को भी उत्तराखंड साहित्य गौरव पुरस्कार से सम्मानित किया जा रहा है और उसी के बराबर दर्जनों किताबों की रचना करने वाले को रखा जा रहा है। स्थिति यह हो गई है कि पचासों साल से साहित्य को समर्पित साहित्यकार को भी यह बताना पड़ रहा है कि उसकी इतनी किताबें छप गई हैं। बाहर के राज्यों की संस्थाओं से भी उसे पुरस्कार मिल चुका है। जबकि कायदे से भाषा संस्थान में एक ऐसी टीम होनी चाहिए, जो बरसों से सृजन कार्य में लगे साहित्यकारों का पता लगाए और उनके साहित्य को संजोए। तभी पुरस्कारों में पारदर्शिता आएगी और इसे लेकर विवाद की स्थिति उत्पन्न नहीं होगी।