
ग़ज़ल
अकेलेपन की आदत हो गई है।
मुझे शायद मुहब्बत हो गई है।।
मुलाजि़म हो गया बेटा मेरा भी।
मुझे अब कुछ सहूलत हो गई है।।
जिसे कल ख्वाब में देखा था मैंने।
वो मेरे घर की ज़ीनत हो गई है।।
गरीबी को नहीं ये मुंह लगाती।
बड़ी कमज़र्फ दौलत हो गई है।।
बदन है प्यार की इक शर्त गोया।
हवस इसकी जमानत हो गई है।।
मुझे अच्छा नहीं अब लग रहा कुछ।
मुझे तेरी जरूरत हो गई है।।
मुहब्बत ‘दर्द’ का है नाम यारो।
मेरी अब ये अलामत हो गई है।।
दर्द गढ़वाली, देहरादून
09455485094