लंगड़ा गया है ‘लोकतंत्र’ का चौथा खंभा
- मीडिया की प्राथमिकता में नहीं रहा आमजन, दो गुटों में बंटे मीडिया की विश्वसनीयता पर संकट, एक सत्ता के पक्ष में तो दूसरा लाठी-डंडे लेकर विरोध पर उतरा, महंगाई, बेरोजगारी और महिलाओं से दुष्कर्म के मुद्दे दरकिनार

– लक्ष्मी प्रसाद बडोनी
देहरादून: लोकतंत्र का चौथा खंभा माने जाने वाला मीडिया ‘लंगड़ा’ गया है। मीडिया की जो भूमिका होनी चाहिए, वह दिख नहीं रही है। राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो, साफ तौर पर मीडिया दो गुटों में बंट गया है। सीधे कहें तो एक सत्ता के पक्ष में है, तो दूसरा लाठी-डंडे थामकर विरोध में उतर पड़ा है। इन सबके बीच आमजन की स्थिति चक्की के दो पाटों के बीच पिसने वाले घुन की तरह हो गई है।
मीडिया की खबरों को देखकर, पढ़कर और सुनकर ऐसे लगता है, जैसे मोदी-योगी, राहुल-सोनिया, नेहरू-इंदिरा और अडानी-अंबानी के अलावा देश में कोई मुद्दा ही नहीं है। सच को सच और झूठ को झूठ कहने का माद्दा न नेताओं में है और न ही मीडिया में। हर कोई अपने हिसाब से खबरों को तोड़ने-मरोड़ने में लगा है। रवीश कुमार, अभिसार शर्मा, अजीत अंजुम, पुण्य प्रसून वाजपेई, अतुल चौरसिया, साक्षी जोशी, प्रज्ञा मिश्रा, अफसां जैसे पत्रकारों की एक लाबी है तो दूसरी ओर सुधीर चौधरी, अर्णब गोस्वामी, रजत शर्मा, अंजना ओम कश्यप जैसे पत्रकार दूसरी लाबी के हैं। दोनों लाबियों में एक-दूसरे को मात देने की होड़ लगी रहती है। यदि कोई एक खबर दिखाता है, तो दूसरा उसके उलट खबर दिखाकर उसे झूठा साबित करने की कोशिश करता है। ऐसे में मीडिया की विश्वसनीयता कठघरे में खड़ी हो जाती है।
मीडिया की इसी विश्वसनीयता पर एक और दाग उस समय लगा, जब एक चर्चित चैनल 4pm से उसके संवाददाता मयूर जानी के इस्तीफे की खबर आई। मयूर जानी ने एक वीडियो में अपने संपादक संजय शर्मा पर आरोप लगाया कि उसने उद्योगपति गौतम अडानी के आगे घुटने टेक दिए हैं। यह वीडियो वायरल हुआ तो संजय शर्मा भी एक वीडियो बनाकर मैदान में उतर पड़े और साफ-साफ कहा कि वह तो अडानी की खिलाफत करते रहे हैं।
इसी विवाद में पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक अशोक वानखेडे भी कूद पड़े और एक डिबेट में संजय शर्मा पर आरोपों की बौछार कर दी। यहां तक कि उन्हें दलाल तक बता डाला। बातों-बातों में अशोक वानखेडे ने यहां तक कह डाला कि संजय शर्मा ज्यादा मत बोलो, अगर मैं कहने पर आ गया तो…।
बहरहाल संजय शर्मा, अशोक वानखेडे और मयूर जानी को यह कौन समझाए कि सवाल अडानी-अंबानी के विरोध का नहीं है, बल्कि सच का है। अडानी-अंबानी का विरोध ही सच्ची पत्रकारिता का सबूत नहीं है और न ही दोनों उद्योगपतियों का अंधा समर्थन ही सही पत्रकारिता है। सत्ता के समर्थन और विरोध से ज्यादा सवाल सच का है, मुद्दों का है। देश में बेरोजगारी, महंगाई और महिलाओं से दुष्कर्म की घटनाएं बढ़ रही हैं, लेकिन इन्हें राजनीतिक रंग देकर नेपथ्य में डाल दिया जा रहा है। सौ बात की एक बात तो यह है कि यदि सत्ताधारी पार्टी सही और अच्छा काम कर रही है, तो उसे भी दिखाया जाना चाहिए और फैसला जनता के हाथ छोड़ देना चाहिए।
लेकिन, मीडिया के इसी अंतर्विरोध का फायदा राजनीतिक दल उठा रहे हैं। खबर की सत्यता की जांच करने को कोई तैयार नहीं है। ओलंपियन विनेश फोगाट के मामले को राजनीतिक रंग देकर सच्चाई पर पर्दा डाल दिया गया। बंगाल में एक महिला डॉक्टर के साथ दुष्कर्म और हत्या की घटना को खूब तूल दिया गया, लेकिन उत्तराखंड में इसी तरह की दुष्कर्म और हत्या की शिकार बनी अंकिता भंडारी के मामले को दबा दिया गया। ऊधमसिंह नगर में ड्यूटी से लौट रही नर्स से दुष्कर्म का मामला भी राजनीति की भेंट चढ़ गया। अंकिता भंडारी मामले के सूत्रधार रहे वीआईपी का भी आज तक पता नहीं चल पाया। चर्चित शराब माफिया पौंटी चड्ढा और उसके भाई की दक्षिण दिल्ली में 12 साल पहले एक फार्म हाउस में हुई हत्या की घटना के समय उत्तराखंड के आईएएस की उपस्थिति का मामला भी राजनीति में उलझकर रह गया।
इसी तरह, एक दिन पहले उत्तर प्रदेश के एक चर्चित और अब पूर्व आईएएस की भीमताल स्थित कोठी में 50 करोड़ की नकदी चोरी होने की खबर सामने आई। इसे लेकर सपा नेता अखिलेश यादव ने ‘एक्स’ पर योगी सरकार को घेरना शुरू कर दिया। चोर-चोर मौसेरे भाई जैसी टिप्पणियां भी सामने आई। प्रिंट मीडिया इस पूर्व आईएएस का नाम बताने से कतराता रहा, लेकिन एक चैनल पर बाकायदा इसके नाम का खुलासा करते हुए डिबेट शुरू हो गई। पता चला कि संबंधित पूर्व आईएएस का नाम अवनीश अवस्थी है और यह उत्तर प्रदेश में प्रभावी नौकरशाहों में गिने जाते रहे हैं। अवनीश अवस्थी कभी गोरखपुर के डीएम रहे थे, इस नाते इनकी चर्चा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के करीबी के रूप में हुई और जिसका ईनाम भी मिला। इस सबको लेकर विपक्ष हमलावर मुद्रा में आ गया।
पूर्व आईएएस अवनीश अवस्थी ही नहीं, बल्कि कई नौकरशाहों और सत्ताधारियों के बीच साठगांठ की खबरें पहले भी सामने आती रही हैं, लेकिन इन सबके बीच आमजन के हित की बात कभी नहीं उठी। दरअसल, मीडिया और सत्ताधारियों के बीच इस गुटबंदी के खेल का नुकसान जनता को भुगतना पड़ रहा है। सरकार चाहे किसी की भी हो, मीडिया का एक गुट उसके बचाव में आ जाता है और जनहित को सिरे से नकार दिया जाता है। ऐसे में सवाल मीडिया की विश्वसनीयता का है, जिस पर मंथन किया जाना जरूरी हो गया है।