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ग़ज़ल के बाद अब सजल का दौर

अवधेश गुप्त नमन का सजल संग्रह ज्योति का संचरण

पुस्तक के आवरण पर ‘ ग़ज़ल संग्रह’ की जगह ‘सजल संग्रह ‘ लिखे जाने पर बरबस एक उत्कंठा उत्पन्न होती है कि आखिर ये सजल है क्या। क्यों ग़ज़ल की जगह सजल को लिखा गया है। पुस्तक का गहराई से अध्ययन एवं मनन करने के पश्चात समझ में आया कि सजल मातृ भाषा हिन्दी के समर्थन में खड़ा किया गया एक आन्दोलन है जो ग़ज़ल के प्रारूप में उर्दू व्याकरण जैसे इज़ाफत , अत्फ़ एवं ज, क, ग ,फ आदि अक्षर के नीचे नुक्ता लगाने या मकां , दुकां , बयां , जुबां हिन्दोस्तां से परहेज करते हुये शुद्ध हिन्दी शब्दों से सुशज्जित गजल है। चूँकि यहां हिन्दी शब्दों का प्रयोग किया गया है इसलिए सजल की अर्थ पाठक को स्वत:ही ज्ञात हो जाता है। सजल अभी अपने प्रारम्भिक दौर से गुजर रही है। इसलिये अरबी फारसी के ऐसे शब्द जो भारतीय जनमानस में आम बोल चाल की भाषा में रुचि बस गये हैं उनके उपयोग अभी प्रतिबन्धित नहीं किये गये हैं अगर उनका उपयोग हिन्दी व्याकरण सम्मत है। जैसे उर्दू का शब्द हादसा है और उसका बहुबचन हवादिस प्रतिबन्धित है मगर हदसे या हादसों का प्रयोग किया जा सकता है क्योंकि इस पर हिन्दी का.व्याकरण लगा है लेकिन निकट भविष्य में पूर्णतय: प्रतिबन्धित करने का संकल्प लिया गया है। हिन्दी का पूर्ण विराम ,अर्ध विराम प्रश्नवाचक चिन्ह लगाना आवश्यक है। शेर को पदिक भी कहा जायेगा।
सजल विधा के प्रवर्तक डा. अनिल गहलौत से. नि. एसोसिएट प्रोफेसर हिन्दी विभाग के आर कालेज मथुरा ( उ. प्र. ) हैं। “इनके अनुसार सजल विधा हिन्दी गीति काव्य की एक नई प्रयोजनपरक विधा है।”
यहां मैं एक बात विशेष रूप से रेखांकित करना चाहता हूँ कि ग़ज़ल की जो बहर है वह भारत से अरब, ईरान पहुँची न कि अरब ईरान से हिन्दुस्तान आई।
जैसे-
भारत में भुजंग प्रयात जो ‘यगण ‘ पर आधारित है और मात्रा भार 122 यगण यगण यगण यगण है वही उर्दू शायरी में बहरे मुतकारिब नाम से जाना जाता है और रुक्न हो गया फऊलुन मात्रा भार 122
फऊलुन फऊलुन फऊलुन फऊलुन
इसी प्रकार विधाता छन्द उर्दू में बहरे हजज होगया मुफाईलुन 1222
मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन
पंच चामर छन्द हो गया मफाइलुन मफाइलुन मफाइलुन मफाइलुन 1212
इसी प्रकार गीतिक, हरिगीतिका आदि अनेकों भारतीय छन्द उर्दू या अरबी फारसी की शायरी में परिवर्तित नाम से मौजूद हैं। इनकी चार पंकितयों को 8, 10, 12,14 पक्तियों में आगे बढ़ा दिया गया है। इनकी चार पंक्तियां तो हूबहू कता में मौजूद हैं।
‘ज्योति का संचरण’ सजल संग्रह अपने मानक पर खरी उतरती है। सजल के शेर हिन्दी प्रकृति होने के पश्चात भी उर्दू में कही गई किसी भी ग़ज़ल से कही भी किसी भी प्रकार से संप्रेषणशीलता में कम नहीं है। पुस्तक की सजलें पढ़ने पर कही भी उबाऊपन का आभास नहीं होता है।पुस्तक में इन्द्रधनुषी छटा देखने को मिलती है।
बानगी के तौर पर कुछ पदिक (शेर) देखिये।

न घर में पुन: उग सका नेह सूरज।
बढ़े स्वार्थ ने इस तरह रार ठानी।।

चमक – दमक में डूबे , मुखड़े भी लकदक।
पर करतूतें काली, अच्छी बात नहीं।।

विष भरा भी कनक- घट लगे रम्य ही।
दुष्ट भी सज – सँवरकर ललित दिख रहा।।

छँटेगा अँधेरा दुखों का जलद।
उजाला कहे मुस्कराकर चलो।।

नन्हें – नन्हें पाँव, गिलहरी पर्वत चढ़ती।
हिन्दी चढे मचान, सजल कोई नव गढ़िये।।

सत्य को समझा नहीं, विचलित हुये सुन।
ले गया कउआ किसी का कान देखो।।

सबसे सुन्दर प्रेम- बाँसुरी।
जाना, जबसे उसे बजाया।।

प्यासी चिड़िया, तपती धरती।
गुंजित राग- मल्हार देखिये।।

प्रत्येक पदिक उ्द्धृत करने योग्य है।

सभी सजलें पठनीय हैं ।

समीक्षक – राम अवध विश्वकर्मा
ग्वलियर
मो. 9479328400
पुस्तक का नाम – ज्योति का संचरण ( सजल संग्रह)
कृतिकार – अवधेश गुप्त ‘ नमन’
2 /304, सेक्टर – एच, जानकीपुरम,
लखनऊ- 226021
मो. 9452776137
मूल्य – 200/- रूपये मात्र
प्रकाशक – अभिराम प्रकाशन
जानकी विहार कालोनी
जानकीपुरम लखनऊ

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