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हिंदी ग़ज़ल के सशक्त हस्ताक्षर हैं अशोक रावत

वो तारों से भरे आकाश में चंदा सा लगता है

अभी हाल ही में साहित्य निकेतन बिजनौर ने हिंदी भाषा के सशक्त हस्ताक्षर और वरिष्ठ साहित्यकार अशोक रावत जी की प्रतिनिधि ग़ज़लों का संकलन प्रकाशित किया है, जिसमें रावत जी की 90 ग़ज़लें संकलित हैं, जो उनके अब तक प्रकाशित चार ग़ज़ल संग्रहों से चयनित की गई हैं।
अशोक रावत हमारे समकाल के बेहद महत्वपूर्ण रचनाकार हैं, जो अपने समय पर सबसे ज्यादा मुखर रूप से हस्तक्षेप करने वाले रचनाकारों में अग्रिम पंक्ति में हैं। वे ऐसे रचनाकार हैं जिनकी ग़ज़लों को भूमिका और मध्यस्थ की आवश्यकता नहीं है। उनके शेर अपने पाठकों से सीधा संवाद करते हैं। उनकी ग़ज़लें हिंदी की काव्य परंपरा से अपनी चेतना ग्रहण करती हैं और हिंदी भाषा के बोल -चाल के रूप जहां उर्दू और हिंदी का भेद ख़त्म हो जाता है, को ग्रहण करती हुई अपनी भाषा और मुहावरे का निर्माण करती हैं। ये बात उनको अपने समकालीनों से अलग और विशिष्ट कतार में खड़ा करती है। ये चन्द अशआर मेरी इस बात की पुष्टि के लिए पर्याप्त हैं-

सियासत की दुकानों पर उजाला बेचने वाले, उजालों की विरासत के कहीं स्वामी न हो जाएं।

अंधेरों की सभा में सर उठाना सीख जाते हैं।
दियों को बस जला दो झिलमिलाना सीख जाते हैं।

कहीं भी हो उसे मैं दूर से पहचान लेता हूं,
वो तारों से भरे आकाश में चंदा सा लगता है।

मनुष्यों की तरह कोमल हृदय होता नहीं कोई,

मनुष्यों की तरह कोई कहीं निर्मम नहीं होता।

हमें भी टांगने दो चित्र बैठक में उजालों के,
हमें भी एक पौधा धूप का घर में लगाने दो।

इस दुनिया में अच्छे लोगों का ही बहुमत है,
ऐसा अगर न होता यह संसार नहीं होता।

आप स्वयं महसूस करें कि स्वामी, सभा, झिलमिलाना, आकाश, चंदा, बैठक, पौधा, बहुमत, संसार जैसे शब्द इन अशआर में कितनी ख़ूबसूरती से प्रयोग किए गए हैं।
अशोक रावत जी की शायरी तसुव्वरात की शायरी नहीं है। वह हमारे आसपास की शायरी है। हमारे एहसासों और संवेदनाओं की शायरी है। अर्थात फिक्र की शायरी है। विचार को पारंपरिक कलाकारी के साथ परोसने की कोशिश रावत जी की ग़ज़लों में नहीं है। उनकी कोशिश है कि ग़ज़ल को उसकी कहन के साथ हिंदी भाषा के सौष्ठव व शब्द सामर्थ्य से आप्लावित किया जाए ताकि वह रेडीमेड या आयातित न लगे।
उनकी ग़ज़लें हमारे समाज, घर परिवार, आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक समाज का बेहतरीन कोलाज हैं। जब पाठक रावत जी की ग़ज़लों को पढ़ते हैं तो ऐसा लगता है जैसे उनके अपने आस- पास की कोई फिल्म चल रही हो। उनकी ग़ज़लों में शब्द चित्र बेहद साफ़ और चमकदार मिलेंगे। कोई खड़खड़ाहट नहीं, कोई छुपाव नहीं और कोई परदादारी नहीं। बजाय इसके कि मैं ज्यादा लिखूं मैं पहले कही गई अपनी बात कि उनकी ग़ज़लों को किसी भूमिका या मध्यस्थ की आवश्यकता नहीं है, का अनुसरण करते हुए संग्रह से कुछ शेर उद्धृत करना ज्यादा बेहतर समझता हूं-

जहां भी देखिए बैठे हैं लाइन तोड़ने वाले,
मैं लाइन में लगा था इसलिए नंबर नहीं आया।

हमारी चेतना पर आंधियां हावी न हो जाएं।
कहीं ज़ुल्म-ओ-सितम सहने के हम आदी न हो जाएं।

कहीं ऐसा न हो जाए, भुला ही दें परिंदों को,
कहीं ये पेड़ कटने के लिए राज़ी न हो जाएं।

इसी कोशिश में दोनों हाथ मेरे हो गए ज़ख्मी। चिरागों को जलाना भी हवाओं से बचना भी।

बड़े भाई के घर से आ रहा हूं।
गया ही क्यों मैं अब पछता रहा हूं ।

मुझे भी तोड़ कर ले जाए कोई,
मैं अपनी साख पर उगता रहा हूं।

उड़ानें भी हमारी सोच में ज़िंदा रहीं,
यह पिंजरे भी हमारी दास्तानों में रहे,

कभी वो राह में बिखरे हुए पत्थर नहीं गिनते।
सफ़र का शौक है जिनको किलोमीटर नहीं गिनते।

यह सारा वक्त काग़ज़ मोड़ने में क्यों लगाते हो, कहीं काग़ज़ की नावों से समंदर पार होते हैं।

बगीचे में कि जंगल में, बड़े हो या कि छोटे हों, किसी भी नस्ल के हो, पेड़ सब खुद्दार होते हैं।

अंधेरों की सभा में सर उठाना सीख जाते हैं।
दियों को बस जला दो, झिलमिलाना सीख जाते हैं।

किसी तालीम के मोहताज होते ही नहीं पौधे
वो खुद मिट्टी में अपनी जड़ जमाना सीख जाते हैं।

किसी भी इम्तिहां में झूठ साबित हो नहीं सकते।
ये सीरत है उजालों की, विभाजित हो नहीं सकते।

किसी भी नस्ल के हों, चाहे जितने खूबसूरत हों, कभी ये ख़ार फूलों में समाहित हो नहीं सकते।

इस तरह गुस्सा उतारा हमने दुनिया पर,
आज अपने आप से दिनभर नहीं बोले।

आईनों के हक में पत्थर बोलते भी क्यों,
ठीक वैसा ही हुआ, पत्थर नहीं बोले।

डर मुझे भी लगा फासला देखकर।
पर मैं बढ़ता गया रास्ता देखकर ।

खुद ब खुद मेरे नज़दीक आती गई,
मेरी मंजिल मेरा हौसला देखकर।

अंधेरों ने यही समझा कि उनसे डर गए हैं हम,
ज़रा सी देर क्या हमसे हुई दीपक जलाने में।

इसलिए कि सीरत ही एक सी नहीं होती।
आग और पानी में दोस्ती नहीं होती।

आजकल चिरागों से घर जलाए जाते हैं,
आजकल चिरागों से रोशनी नहीं होती।
अशोक रावत जी को उनके इस संग्रह के लिए बहुत बहुत बधाई।
इस संग्रह को एमेजॉन से निम्न लिंक द्वारा खरीदा जा सकता है-
Pratinidhi Ghazalen Ashok Rawat https://amzn.eu/d/2WcKlfa

समीक्षक: संजीव गौतम

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