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उत्तराखंड भाषा संस्थान बना चाटुकारों का अड्डा

- इन्हीं चाटुकार और स्वनामधन्य साहित्यकारों की सलाह पर हर साल ठिकाने लगाया जा रहा लाखों रुपए का बजट, उत्कृष्ट पुस्तक अनुदान योजना में किताबों के नाम पर छप रहा कूड़ा, एक भी किताब नहीं समझी जा रही पुरस्कार लायक, दो साल से नहीं हो रहे सरकारी स्तर के कवि सम्मेलन, मेले-ठेले के कवि सम्मेलनों में चुनींदा कवियों का कब्जा

देहरादून: उत्तराखंड भाषा संस्थान और संस्कृति निदेशालय चाटुकार साहित्यकारों का अड्डा बन गया है और हर साल इनके जरिए लाखों रुपए के बजट को ठिकाने लगाया जा रहा है। हर नीति इन्हीं चाटुकारों की सलाह से बनाई जा रही है। स्थिति यह है कि उन पुस्तकों को भी पुरस्कृत कर दिया जा रहा है, जिनमें कन्टेंट कुछ नहीं है, जबकि गलतियों की भरमार है। संस्थान के अनुदान से छापी गई एक भी पुस्तक को पुरस्कार लायक नहीं समझा जा रहा है, या अपने चहेतों को उन किताबों पर अधिमान देकर नज़रंदाज़ किया जा रहा है।

उत्तराखंड भाषा संस्थान के गड़बड़झाले की सिलसिलेवार पड़ताल करते हैं। सबसे पहले, संस्थान की उत्कृष्ट पुस्तक अनुदान योजना की ही बात करें, तो यह योजना अपने लक्ष्य से भटक गई है। पहले इस योजना के अंतर्गत गरीब लेखकों की अच्छी पांडुलिपि को किताब की शक्ल में प्रकाशित करने के लिए अनुदान देने का प्रावधान किया गया था। इसके अंतर्गत पांच लाख से कम वार्षिक आमदनी वाले लेखकों की उत्कृष्ट पांडुलिपि के लिए अनुदान दिया जाना था। लेकिन कुछ तथाकथित और चाटुकार साहित्यकारों की सलाह पर लेखकों की पात्रता की आमदनी पिछले साल 15 लाख रुपए सालाना कर दी गई। यानी यदि किसी की आमदनी सवा लाख रुपए महीना भी है, तो उसे आसानी से किताब प्रकाशित करने के लिए अनुदान मिल जाएगा। सवाल यह है कि जिस लेखक को सवा लाख रुपए महीना वेतन मिल रहा है, उसे अनुदान की क्या जरूरत। यही नहीं, अनुदान के लिए भी कोई मापदंड नहीं है। मनमर्जी के मुताबिक 10 से 50 हजार रुपए तक का अनुदान दिया जाता है। संस्कृति निदेशालय तो इससे कई कदम आगे है और चाटुकारों को दो-दो लाख रुपए तक का अनुदान दे दे रहा है और इस तरह हर साल लाखों रुपए का बजट ठिकाने लगाया जा रहा है। पुरस्कार प्रक्रिया गोपनीय रखने की बात कहकर अधिकाश अपने चहेतों या चाटुकारों को पुरस्कृत किया जा रहा है।
इसके अलावा, संस्थान में विभिन्न कार्यक्रमों के लिए कब समिति गठित हो जाती हैं, इसका भी कोई मापदंड नहीं है। कुछ समितियां तो ऐसी हैं, जिनमें दो-तीन बड़के साहित्यकारों का ही कब्जा जमाया हुआ है। मीडिया संस्थानों को भी यह लोग मैनेज कर लेते हैं, जिससे इन संस्थानों का कोई गड़बड़झाला सामने नहीं आ पाता। दो-तीन साल से राष्ट्रीय पर्वों पर सरकारी स्तर से होने वाले कवि सम्मेलन की परंपरा भी खत्म कर दी गई है। विभिन्न जिलों में मेलों में होने वाले कवि सम्मेलन में भी कुछ चुनींदा कवियों ने कब्जा जमाया हुआ है।

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