दुष्यंत से कमतर नहीं थी हरजीत की शायरी
एक से बढ़कर एक ग़ज़लें कहने वाले हरजीत बहुत कम उम्र में ही इस दुनिया से हो गए थे रुखसत

हरदिल अज़ीज़ शायर थे हरजीत सिंह। यही कारण था कि आसानी से हर किसी की तारीफ न करने वाले विष्णु खरे की नज़र जब हरजीत की ग़ज़लों पर पड़ी तो वह भी उनकी शायरी के कायल हो गए थे। कहा था कि अदबी जगत को दुष्यंत कुमार जैसा शायर मिल गया है, मगर दुर्भाग्य कि वह ज्यादा समय हमारे बीच नहीं रहे सके। 5 जनवरी, 1959 को देहरादून में जन्मे हरजीत सिंह महज़ 40 साल की उम्र में इस दुनिया से चले गए।
हरजीत ने इंटरमीडिएट तक की ही पढ़ाई की थी। जीवनयापन के लिए वे अपने ही शहर में बढ़ईगीरी करते थे। बाद में बच्चों के लिए लकड़ी के खिलौने बनाने में लग गए। सुन्दर तराशे हुए खिलौने बनाना उनका जुनून होता था। बच्चों से उन्हें विशेष लगाव था। कन्धे पर लटके एक झोले में बढ़ईगिरी का सामान आरी, रंधा आदि होता तो वहीं दूसरे झोले में एक दो किताब, मैगजीन, प्लास्टिक के ग्लास, एक दो प्याज, गाजर आदि।
इस साधारण से व्यक्तित्व वाले हरजीत ने आठवें दशक में एक से बढ़कर ग़ज़लें लिखीं। एक समय था कि हरजीत की ग़ज़लें देश भर की तमाम पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुईं। उनकी ग़ज़लें अपनी बिम्ब योजना, कथ्य और ग़ज़लियत की दृष्टि से हिन्दी ग़ज़ल की अमूल्य निधि हैं। विष्णु खरे को जानने वाले जानते हैं कि हिंदी साहित्य का यह दुर्वासानुमा कवि सामान्य तौर पर किसी की तारीफ नहीं करता था, परन्तु हरजीत सिंह के बारे में उन्होंने लिखा था कि हिंदी साहित्य को दुष्यंत कुमार के बाद का ग़ज़लकार मिल गया है। विख्यात स्वीडी उपन्यासकार लार्श ऐंडरसन उनके बहु-आयामी जीवन और बहुमुखी प्रतिभा से इस हद तक मुतासिर हुए थे कि उनके उपन्यास BERGET (परबत) का एक अहम् क़िरदार हरजीत से हुई उनकी मुलाकातों की बुनियाद पर टिका है। ऐसा क़िरदार जो मुफ़लिसी का जश्न मनाते हुए भी अपनी टूटी हुई छत से उड़ कर कमरे में आयी चिड़ियों के बारे में भी इस तरह के आशू शे’र कह लेता।
हरजीत सिंह के दो ग़ज़ल संग्रह ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हुए हैं- ‘ये हरे पेड़ हैं’ सन् 1993 में प्रकाशित हुआ, इसमें 49 ग़ज़लें संग्रहीत हैं तथा दूसरा ग़ज़ल संग्रह ‘एक पुल’ सन् 1996 में प्रकाशित हुआ, जिसमें 67 ग़ज़लें संग्रहीत हैं। यह दोनों संग्रह भी अब आउट ऑफ प्रिंट है। हरजीत ग़ज़ल की दुनिया में शोहरत की बुलन्दियों पर पहुंचने ही वाले थे कि वक्त की फिसलन की चपेट में आ गए और 22 अप्रैल, 1999 को उनका देहान्त हो गया.
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हरजीत सिंह की पांच ग़ज़लें
जो ख़ामोशी से हासिल हो रहा है।
मिरे लहजे में शामिल हो रहा है।।
मुझे बचना पड़ेगा अब तो उस से।
अगर वो शख़्स मंज़िल हो रहा है।।
मैं आँखों को भिगोना चाहता हूँ।
बहुत पत्थर मिरा दिल हो रहा है।।
उसी पत्थर से लहरें उग रही हैं।
वही पत्थर जो साहिल हो रहा है।।
मैं कोशिश कर रहा हूँ कह सकूँ वो।
कई दिन से जो मुश्किल हो रहा है।।
मैं कितनी बार उस से मिल चुका हूँ।
बिछड़ने पर वो हासिल हो रहा है।।
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उस ने बहती नदी को रोक लिया।
फिर किसी ने उसी को रोक लिया।।
सारा दिन मैं न मिल सका उस से।
चाँद ने धूप ही को रोक लिया।।
एक बच्चे ने माँग ली सीपी।
रेत ने लहर ही को रोक लिया।।
भोली-भाली नहीं रही अब वो।
उस ने अपनी हँसी को रोक लिया।।
अज्नबिय्यत बहुत ही प्यारी थी।
मैं ने इस दोस्ती को रोक लिया।।
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दूब को चाहिए हरा मौसम।
और मुझ को खिला खिला मौसम।।
देख कर एक शख़्स को तन्हा।
कुछ से कुछ और हो गया मौसम।।
सीढ़ियों पर जमी थी काई बहुत।
पैर रखते फिसल गया मौसम।।
इन दिनों कुछ नहीं हुआ मुझ से।
हर तरफ़ गूँजता रहा मौसम।।
सब ने चिपकाए काले काग़ज़ थे।
किस झरोके से झाँकता मौसम।।
एक तिरपाल उड़ के दूर गिरी।
हाट को रौंदता गया मौसम।।
और सब लोग बात करने लगे।
जाने किस शख़्स ने कहा मौसम।।
उम्र भर उस के साथ रहता है।
एक बच्चे की आँख का मौसम।।
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फ़लसफ़े ख़ुद-कुशी नहीं करते।
लोग ही ज़िंदगी नहीं करते।।
वक़्त के साथ चलने वाले तो।
उम्र की बात ही नहीं करते।।
जिस से हो कर ज़माने गुज़रे हों।
बंद ऐसी गली नहीं करते।।
रंग ख़ाकों से बरतरफ़ रह कर।
कोई जादूगरी नहीं करते।।
ताज़ा पत्ते पुराने पत्तों से।
सीधे मुँह बात ही नहीं करते।।
ये अलग बात बे सज़ा हैं हम
क्यूँ कहीं जुर्म ही नहीं करते।।
ऐसे बच्चे जो ज़िद न करते हों।
ख़ुद को मज़बूत भी नहीं करते।।
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उस एक शय से मिरे ध्यान का नशा टूटा।
न जाने हाथ से क्या छूटा जाने क्या टूटा।।
लगा कि जैसे मिले हों हम एक उम्र के बा’द।
तमाम रात न बातों का सिलसिला टूटा।।
पहाड़ बर्फ़ के आवारा पानियों से कटे।
जगह जगह पे मिला मुझ को रास्ता टूटा।।
हरा भरा था शिकायत न थी किसी से उसे।
हवा बदलते ही उस का भी आसरा टूटा।।
उसे तलाश थी अपने ही एक लम्हे की।
वो बार बार कई लम्हों से जुड़ा टूटा।।
तू उस के साथ जुड़ी तार तार टूटेगी।
वो शख़्स अपनी हदों में अगर ज़रा टूटा।।