यहां करिए नारायण और शिव दोनों के दर्शन
वर्ष 2019 तक सिर्फ एक दिन रक्षाबंधन के दिन खुलते थे वंशी नारायण मंदिर के कपाट, वर्ष 2020 से बद्रीनाथ धाम के साथ कपाट खोलने और बंद करने की परंपरा हुई शुरू

देहरादून: मठ-मंदिरों की भूमि उत्तराखंड में एक ऐसा प्राचीन मंदिर भी है, जिसके कपाट वर्ष 2019 तक सिर्फ एक दिन के लिए खोले जाते थे। यह मंदिर है चमोली जिले के जोशीमठ विकासखंड की उर्गम घाटी में स्थित वंशी नारायण मंदिर। पीढ़ियों से स्थापित परंपरा के अनुसार इस मंदिर के कपाट रक्षाबंधन पर्व पर खोले जाते रहे हैं और उसी दिन सूर्यास्त से पूर्व बंद भी कर दिए जाते थे। लेकिन, वर्ष 2020 में श्री वंशी नारायण मंदिर समिति ने नई परंपरा की शुरुआत करते हुए मंदिर के कपाट बदरीनाथ धाम के साथ खोलने और बंद करने का निर्णय लिया। तब से यही परंपरा स्थापित हो गई है। समुद्रतल से 13 हजार फीट की ऊंचाई पर कत्यूरी शैली में निर्मित इस मंदिर का निर्माण काल छठी से लेकर आठवीं सदी के बीच का माना जाता है। ऐसा भी कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण पांडवकाल में हुआ।
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नारायण व शिव, दोनों के दर्शन
वंशी नारायण मंदिर तक पहुंचना कोई हंसी-खेल नहीं है। यहां जाने के लिए बदरीनाथ हाईवे पर हेलंग से उर्गम घाटी के देवग्राम गांव तक आठ किमी की दूरी वाहन से तय करने के बाद आगे 12 किमी का रास्ता पैदल नापना पड़ता है। पांच किमी दूर तक फैले मखमली घास के मैदानों को पार कर सामने नजर आता है दस फ़ीट ऊंचा प्राचीन वंशी नारायण मंदिर। भगवान नारायण को समर्पित एकल संरचना वाला यह मंदिर उर्गम गांव के आखिरी गांव बांसा से 10 किमी आगे है। इसलिए, मंदिर के आसपास कोई मानव बस्ती नहीं हैं। मंदिर रोडोडेंड्रोन के जंगल और अल्पाइन घास के मैदानों से घिरा हुआ है। वंशीनारायण मंदिर में भगवान विष्णु की चतुर्भुज पाषाण मूर्ति विराजमान है। विशेष यह कि इस मूर्ति में भगवान नारायण व भगवान शिव, दोनों के ही दर्शन होते हैं। मंदिर में भगवान गणेश और वन देवियों की मूर्तियां भी मौजूद हैं। परंपरा के अनुसार कलगोठ गांव के जाख देवता के पुजारी ही वंशी नारायण मंदिर के पुजारी भी होते हैं। ये पुजारी ठाकुर जाति के होते हैं।
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पहले श्रावण पूर्णिमा पर था पूजा का विधान
वंशी नारायण मंदिर में पहले साल में सिर्फ रक्षाबंधन के दिन ही पूजा का विधान था। इसी दिन श्रद्धालु यहां दर्शन और पूजा-अर्चना कर सकते थे। बाकी पूरे वर्ष मंदिर के कपाट बंद रहते थे। अब भी रक्षाबंधन के दिन कुंआरी कन्या व विवाहिताएं भगवान वंशी नारायण की कलाई पर रक्षा सूत्र बांधने के बाद ही अपने भाइयों की कलाई पर स्नेह की डोर बांधती हैं। मंदिर के पास ही एक फुलवारी भी है, जिसे भगवान वंशी नारायण की फुलवारी कहते हैं। यहां कई दुर्लभ प्रजाति के फूल खिलते हैं, जिन्हें सिर्फ श्रावण पूर्णिमा यानी रक्षाबंधन पर्व पर तोड़ा जाता है। परंपरा के अनुसार इन्हीं फूलों से भगवान नारायण का विशेष शृंगार किया जाता है।
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हर घर से आता है मक्खन
कपाट खुलने वाले दिन कलगोठ गांव का हर परिवार भगवान वंशी नारायण को भोग लगाने के लिए स्वयं का तैयार किया हुआ मक्खन लेकर मंदिर में पहुंचता है। इसी मक्खन से वहां पर प्रसाद तैयार होता है। इससे पहले मंदिर के पास मौजूद फुलवारी में खिले दुर्लभ प्रजाति के फूलों से भगवान नारायण का शृंगार होता है। साथ ही भगवान को सत्तू बाड़ी का भोग लगाया जाता है।
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इसलिए था मनुष्य को सिर्फ एक दिन पूजा का अधिकार
वंशी नारायण मंदिर में मनुष्य को सिर्फ एक दिन पूजा का अधिकार दिए जाने की भी रोचक कहानी है। कहते हैं कि एक बार राजा बलि ने भगवान विष्णु से आग्रह किया कि वह उनके द्वारपाल बनें। भगवान विष्णु ने राजा बलि के इस आग्रह को स्वीकार कर लिया और राजा बलि के साथ पाताल लोक चले गए। भगवान विष्णु के कई दिनों तक दर्शन न होने कारण माता लक्ष्मी परेशान हो गईं और उन्हें ढूंढते हुए देवर्षि नारद के पास वंशी नारायण मंदिर पहुंचीं। माता ने उनसे भगवान नारायण का पता पूछा। तब नारद ने माता को भगवान के पाताल लोक में द्वारपाल बनने का पूरा वृतांत सुनाया और उन्हें मुक्त कराने की युक्ति भी बताई। देवर्षि ने कहा कि आप श्रावण मास की पूर्णिमा को पाताल लोक में जाएं और राजा बलि की कलाई पर रक्षा सूत्र बांधकर उनसे भगवान को मांग लें। लेकिन, पाताल लोक का मार्ग ज्ञात न होने पर माता लक्ष्मी ने नारद से भी साथ चलने को कहा। तब नारद श्रावण पूर्णिमा के दिन माता लक्ष्मी के साथ पाताल लोक गए और भगवान को मुक्त कराकर ले आए। मान्यता है कि सिर्फ यही दिन था, जब देवर्षि वंशीनारायण मंदिर में पूजा नहीं कर पाए। इस दिन उर्गम घाटी के कलकोठ गांव के जाख पुजारी ने भगवान वंशी नारायण की पूजा की। तब से यह परंपरा अनवरत चली आ रही है।
– दिनेश कुकरेती
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार हैं)