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रुतबा….दोस्ती…. पुरस्कार

- उत्तराखंड साहित्य गौरव पुरस्कार को लेकर उठ रहे सवाल

देहरादून : ‘वो समझता है कि बिना बात ही खूं रोता हूं।
ला इधर ला उसे समझाऊं कि क्यूं रोता हूं।।’ युवा शायर इब्राहिम अली जीशान का यह शेर उत्तराखंड भाषा संस्थान की कार्यशैली पर सटीक बैठता है। सीधे तौर पर कहें तो भाषा संस्थान की ओर से हाल ही में रेवड़ियों की तरह वितरित साहित्य गौरव पुरस्कार और पुस्तक अनुदान प्रक्रिया को लेकर साहित्यकारों का गुस्सा स्वाभाविक है। कुछ साहित्यकार तो पुरस्कार की पूरी चयन प्रक्रिया पर ही सवाल उठा रहे हैं। उनका आरोप है कि कुछ पुरस्कार तो ऐसे हैं, जो सामने वाले का रुतबा देखकर दिए गए हैं, तो कुछ पुरस्कार दोस्ती निभाने की खातिर दिए गए लगते हैं।
पुरस्कारों को लेकर सोशल मीडिया पर आ रही प्रतिक्रियाओं से जाहिर है कि दाल में कुछ न कुछ काला तो ज़रूर है। मोहन भट्ट का आरोप है कि अधिकांश सम्मान/पुरस्कार के पीछे झोल है। साहित्यिक पत्रिका के लिए निर्धारित ही नहीं है कि हिन्दी, कुमाऊनी, गढ़वाली किस भाषा में प्रकाशित होती हो। साहित्यिक पत्रिका के मापदंड भी निर्धारित नहीं हैं। सुविधानुसार किसी भी भाषा में अपने चहेतों को सम्मान दे दिये जाते हैं। देवकी नंदन कांडपाल कहते हैं कि भाषा संस्थान उन रचनाकारों की खोज करे, लोक में किन कवियों का कार्य श्रेष्ठ है, न कि वे संस्थान के दफ्तर में डोलें। बुजुर्ग साहित्यकारों का पता लगाकर घर पर भी संपर्क किया जा सकता है। देशभर में अपने चर्चित कहानी संग्रह ‘नदी की उंगलियों के निशान’ से अपना स्थान बनाने वाली कथाकार कुसुम भट्ट भी पुरस्कार चयन प्रक्रिया पर सवाल उठाती हैं। उनका आरोप है कि अधिकांश पुरस्कारों का चयन सही नहीं हैं। साहित्यकार आशा शैली भी पुरस्कार चयन प्रक्रिया से नाखुश हैं।
साहित्यकार रतन सिंह किरमोलिया तो पुरस्कार के लिए आवेदन की प्रक्रिया को ही ग़लत मानते हैं। उनका कहना है कि जब कोई भी साहित्यकार आवेदन के साथ संस्तुति देता है, तो जुगाड़ का सिलसिला तो वहीं से शुरू हो जाता है, इसलिए पुरस्कार और साहित्यकार के मान-सम्मान के लिए अच्छा है कि एक पारदर्शी तरीके से खुद एक टीम उसका मूल्यांकन कर पुरस्कार के लिए नाम प्रस्तावित करे। पुस्तक अनुदान को लेकर किरमोलिया कहते हैं कि रीति-नीति निर्धारित न होने से तीन सौ-साढ़े तीन सौ पृष्ठों वाली पुस्तक को भी उतना ही अनुदान, पुस्तक ढाई सौ पृष्ठों की हो या एक सौ दस-बीस या मात्र साठ-सत्तर पृष्ठों की। सभी को बराबर धनराशि का अनुदान दिया जाना समझ से परे है। संस्थान खुद छपाए या अनुदान देकर लोक भाषा की पुस्तकें देश-प्रदेशों के पुस्तकालयों/वाचनालयों के लिए खरीद के नियम बनाए जाएं। स्कूल, कालेजों, विश्वविद्यालयों या अन्य पुस्तकालयों/ वाचनालयों के लिए भी लोक भाषा की पुस्तकें,पत्र-पत्रिकाएं खरीदने का प्रावधान बने। तभी लोक भाषा की पुस्तकों को पढ़ने की संस्कृति पनपेगी। प्रचार-प्रसार भी बढ़ेगा और इससे रचनाकारों को रॉयल्टी भी मिल सकती है। पर संस्थान में तो मात्र बजट खपाने वाले कुंडली मारे बैठे हुए हैं। लोक भाषा के प्रचार-प्रसार के और भी बहुत से तरीके हैं।
साहित्यकार तारा पाठक का मानना है कि अनुदान राशि जरूरतमंद तक पहुंचेगी तो साहित्य की जड़ें मजबूत होंगी। साहित्यकार महेंद्र प्रकाशी तो भाषा संस्थान की कार्यप्रणाली पर संदेह जताते हुए पूरी व्यवस्था में ही आमूलचूल परिवर्तन पर जोर देते हैं।

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