‘मैंने कभी किसी से मांगकर भोजन नहीं किया’
जनकवि डॉ. अतुल शर्मा ने शब्दक्रांति से साझा किए प्रगतिशील कवि त्रिलोचन शास्त्री से जुड़े संस्मरण

कवि त्रिलोचन शास्त्री
देहरादून: प्रगतिशील कवि त्रिलोचन शास्त्री का आज अवतरण दिवस है। आज देश के विभिन्न क्षेत्रों में उन्हें याद किया गया। जनकवि डॉ. अतुल शर्मा ने ‘शब्दक्रांति’ के साथ त्रिलोचन से जुड़े संस्मरण साझा किए। उन्होंने बताया कि त्रिलोचन जी एक खांटी ग्रामीण परिवेश और स्वाभिमानी व्यक्ति थे। उन्होंने बताया कि वह मेरे पिताजी के बाल सखा थे। देहरादून में हमारे घर आए तो खूब बातें करते रहे। दो-ढाई घंटे तक। बातों में अनुभव और संस्करण थे। युवाओं के साथ क्रियाशील होने के प्रति आस्था थी। लोकजीवन दर्शन था।
इससे अलग भी और जुड़ा भी था पारिवारिक लगाव।
तख्त पर बैठकर भोजन किया। और फिर शुरू हुआ बातों का सिलसिला। दंत कथाओं में त्रिलोचन पुस्तक में कवि केदार नाथ सिंह ने बहुत प्रसंग दिए हैं। कुछ वैसे ही प्रसंग होंगे ये भी।
हमें लगा कि आज वे खूब रोचक बातें बताने वाले हैं।
दाढ़ी के पीछे उनकी मुस्कान उभर रही थी। आंखों पर मोटे फ्रेम का चश्मा। खादी का कुर्ता पाजामा। और जिन्दा इतिहास। उन्होंने जो और जैसा बताया वह हम सुनते रहे। जो आज भी हमारी स्मृति में है।।
उन्होंने कहा कि सुलतानपुर में है दोस्तपुर। वहाँ हम और तुम्हारे पिताजी श्रीराम शर्मा प्रेम खूब साथ रहते थे। वे अच्छे कवि थे। और गायक भी। मैं लोक गायकों के साथ रात-रात बैठा करता था।
श्रीराम जी ने मुझे बहुत सी पुस्तकें लाकर दीं। कविताओं की। उसमें सुमित्रानंदन पंत जी की भी कवितायें थीं। मैं वहीं से कविताओं के प्रति जुड़ा। मैं उन तमाम कविताओं को एक कापी में लिख लेता था। सुन्दर दिखाई में। जो भी किताब वे लाते। उसे मैं लिखता। कई बार मुझे लगता कि ये मेरी ही कवितायें है। बाल्यकाल था। श्रीराम शर्मा प्रेम मुझसे बड़े थे।
वे बहुत ही अच्छे तैराक भी थे। वे स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े और बहुत छोटी उम्र में गिरफ्तार कर लिये गये। फिर वे देश के विभिन्न स्थानों में रहे। 1946 से तो देहरादून में ही बसे थे ।
वे और भी महत्वपूर्ण बातें बताते रहे। मैंने कभी किसी से मांगकर भोजन नहीं किया। रेल की पटरी के किनारे बहुत दूर चलता रहा। भूख लगी। पर कहीं हाथ नहीं फैलाया। किनारे ही एक गुड़ का टुकड़ा दिखा, उसे खा लिया। पर किसी से मांगा नहीं।
अस्सी बरस के आसपास की उम्र में अगर सक्रिय रहे और युवाओं के साथ क्रियाशील रहे तो ही जीवन की सार्थकता है। वे जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे और युवाओं के साथ सक्रिय रहे ।
वे कई बार चुप हो जाते और मुस्कुराने लगते । मतलब कि उन्हें कोई और बात याद आ गयी है।
फिर वे बताने लगे,,,, एक कवि मित्र ने हमसे कहा कि शास्त्री जी अब हम आशीर्वाद देने की अवस्था में आ गये हैं। तो मैंने कहा तब तो हम मूर्ति हो जाएंगे। आशीर्वाद चाहिये किसे? अरे लोगों के साथ लगातार सक्रिय रहो। और अंत तक सीखते रहो।
वे यह सब एम के पी कालेज के स्टाफ क्वाटर में बता रहे थे। कालेज में हमारी दीदी रीता और रंजना कार्यरत् थीं।
वे बीमार थे और अपनी बहु के साथ कनखल में रहने आये थे।
फिर सीएमआई में भी भर्ती रहे।
स्वास्थ्य लाभ के बाद वे अपनी एडवोकेट बहू और जनसत्ता के संपादकीय विभाग में कार्यरत बेटे अजय के साथ आये थे।
जब वे मुक्तिबोध सृजन पीठ में थे तो उनके साथ बहुत पत्र व्यवहार हुआ। अजय ने वह अभिनन्दन पत्रिका हमे लाकर दी थी, जिसमें उन्होंने हमारे पिता श्रीराम शर्मा प्रेम के विषय में लिखा था।
सच ही कहा है कि कवि त्रिलोचन शास्त्री जनपद के कवि थे। किसान ने सूरज पर लिखी शास्त्री जी की कविता पर टिप्पणी की थी की हमें तो अपने कंधे पर हल दिखता है रोज़,,,, वैसी कविता लिखो,,,,
तो बस त्रिलोचन शास्त्री ने उसे भी अपने लेखन का लक्ष्य बना लिया।
वे देहरादून आये थे एक बार कथाकार विद्यासागर नौटियाल जी से संबंधित समारोह में। तब भी वे हमारे सुभाष रोड स्थित मकान में आये थे। साथ में वाचस्पति बल्ली सिंह चीमा और देवेन्द्र नैथानी भी थे।