झुग्गी-झोपड़ी की आवाज़ हैं अरुण साहिबाबादी की ग़ज़लें

यदि झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले ग़रीबों के दर्द को जानना हो और उनके भूख के भूगोल को नापना हो तो पढ़ जाइए अरुण साहिबाबादी की ग़ज़लें।
यह शाइर अवाम के बीच रहता है । उनके दुःख दर्द में शामिल होता है और वहाँ के लोगों के बीच रह कर जन आंदोलन की ज़मीन तैयार करता है ।
कवि और शाइर जनाब अरुण साहिबाबादी गाज़ियाबाद से आते हैं । इनके चार कविता संग्रह और एक ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। आप गीत , ग़ज़ल , नज़्म और कविता आदि काव्य की लगभग सभी विधाओं में लिखते हैं ।
लेकिन मेरा उद्देश्य उनके ग़ज़ल – संग्रह ‘ झुग्गी ‘ पर आपका ध्यान आकृष्ट करना है।
जहाँ तक अरुण साहिबाबादी की ग़ज़लों का सवाल है उनकी ग़ज़लें तेजधार हथियार का काम करती हैं । सच मानिए तो वे कभी – कभी ‘ इंक़लाब ज़िन्दाबाद ‘ के नारे में बदल जाती हैं ।
साहिबाबादी एक अर्थ में आग और रोशनी के शाइर हैं । आग जो जलाती भी है और रोशन भी करती है। इन सब खूबियों से गुज़रने के लिए हमें एकबार अरुण साहिबाबादी के एक मात्र प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह झुग्गी ‘के पास जाना होगा । ग़ज़लों की इस किताब के एक – एक हर्फ़ पर ग़ौर करना होगा।
झुग्गी में रहने वाले , मुश्किलात के मारे , इंसानों के दर्द की दास्तान एक ग़ज़ल के इन दो अश’आरों में वे इस तरह बयान करते हैं :
हथेली में जितने छाले ओ मौला
कि इतने तो देता निवाले ओ मौला
तू लड़की की डोली को उठवा दे वरना
उसे इस जहां से उठा ले ओ मौला ।
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पेट की भूख गरीबों का ख़ास मसला है । वहाँ दो वक़्त की रोटी ज़िन्दगी का सबसे बड़ा सवाल बन जाती है। शाइर अरुण साहिबाबादी कहते हैं :
ये रूखा है या ताज़ा है कभी सोचा नहीं जाता
ग़रीबों के यहाँ खाना कभी परखा नहीं जाता
अटक जाते हैं जब सूखे निवाले मेरे बच्चों के
मैं चेहरा फेर लेता हूँ उधर देखा नहीं जाता
सभी रोटी कमाने को निकल जाते हैं बस्ती में
कि उसके घर से मकतब को कोई बच्चा नहीं जाता
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इन अश’आरों से गुज़रते हुए मुझे ऐसा महसूस होता है कि इस शाइर ने ग़रीबी और भूख को बहुत करीब से देखा है । कैसे एक नया नया भिखारी सिर्फ़ हाथ ही फैला पाता है दाता से कुछ बोलना या नज़र मिलाना उसके वश का नहीं। शाइर साहिबाबादी फ़रमाते हैं :
मुँह से कुछ मांगा नहीं बस हाथ फैलाता रहा
वो भिखारी था नया तो शर्म से नाता रहा
उस भिखारी ने भी उसको मांगते देखा है आज
जो भिखारी उसके दर पर मांगने जाता रहा
एक बात और । यह शाइर इस सचाई को बखूबी जानता है कि शहर में दंगे फसाद कौन करवाते हैं ! दंगों के पीछे कौन – कौन शक्तियाँ हैं ! झुग्गी – झौंपड़ी के बाशिंदे तो हर्गिज़ नहीं , यह तो ऊंचे लोगों का खेल है :
जैसा उन्होंने चाहा था वैसा नहीं हुआ
अफ़सोस अबके शहर में दंगा नहीं हुआ
इस खेल को वे चाहते थे और देखना
ज़ख्मी की मौत हो गई अच्छा नहीं हुआ ।
इसी प्रकार राष्ट्रीय भावना , कौमी एकता और आपसी भाईचारे पर भी शाइर अरुण साहिबाबादी ने अपनी क़लम बहुत ही मानीखेज़ ढंग से चलाई है।
कहा माँ ने ये फ़ौजी से तू वापस गाँव मत आना
अगर इस देश की रक्षा में तू नाकाम हो जाये
ठहर कर एक मंदिर पर ये बादल ने कहा खुद से
कि अब मसजिद के आगे भी ज़रा बिसराम हो जाये ।
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शाइर साहिबाबादी के पास शाइरी के लिए ज़रूरी फ़िक़्र और फ़न की ऊंचाइयां हैं । इनके अश’आर साधारण होकर भी असाधारण हैं ।
भाषा का दोआबी रंग का जलवा और बात को कहने का ख़ास अंदाज़ है।
कुलमिलाकर साहिबाबादी की ग़ज़लें अपने श्रोताओं और पाठकों पर अच्छा प्रभाव छोड़ती हैं।
मैं इनके रचनात्मक उत्कर्ष की कामना करता हूँ ।
– डॉ. रमाकांत शर्मा (समीक्षक वरिष्ठ साहित्यकार हैं)