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दर्द में डूबी वो नज़्म, जिसे सुनकर सिसकने लगी आंखें 

फिर जैसे ही रहबर सा. नज़्म ख़त्म कर के अपनी जगह पर जाने को मुड़े तब सभी को होश आया और यकायक सबके हाथों से तालियों गूंज उठी, लेकिन इन तालियों से भी नमी का रिसाव साफ़ दिखाई पड़ रहा था

स्थान: इंदौर छावनी पुलिस स्टेशन के पीछे वाली चाल समय: बरसात की आधी रात

ये बारिश की एक घनघोर अंधेरी रात है। तक़रीबन आठ बाय पंद्रह फिट लंबे गलीनुमा मकान के दो छोटे कमरे में पांच बच्चे और मियां-बीवी मौजूद हैं। तेज बारिश की वजह से खपरैल की छत का शोर घर में गूंज रहा है। लेकिन पांचों बच्चों की नींद पर इस शोर का कोई असर नहीं है। वो तो दुनिया से बेख़बर मस्त नींद के मज़े ले रहे हैं। एक बिस्तर पर मियां-बीवी लेटे हैं। उनके बीच दो-सवा दो साल की बच्ची भी सो रही है। लेकिन उसके मां-बाप की आंखों में इस घनघोर बरसात की आधी रात के बाद भी नींद का कोई नामोनिशान नहीं है। वे दोनों मियां-बीवी एकटक उस बच्ची को देखे जा रहे हैं फिर अचानक उसे देखते-देखते रोने लगते हैं। दोनों की आंखों से उसी तरह आंसुओं की बरसात होने लगती है, जैसे घर के बाहर टूट कर पानी बरस रहा है। दोनों मियां-बीवी फिर एक-दूसरे को देखते हैं और लेटे-लेटे अपने सर से सर मिलाकर बच्चों की तरह हिचकियां लेकर ज़ोर-ज़ोर से रोने लगते हैं। मगर उनकी रोने की और हिचकियों की आवाज़ को खपरैल पर गिरने वाली बारिश की आवाज़ें निगलती जा रही है।

दरअसल आज की रात इन दिनों के लिए क़यामत की रात बन कर आई है। क्योंकि आज ही दिन में डाक्टर ने उन्हें ये बताया है कि उनकी ये दो – सवा दो साल की बच्ची ज़िंदगी में कभी न बोल सकेगी और न सुन सकेगी..वो गूंगी-बहरी है। जब से डाक्टर ने ये बात उन्हें बताई है, तभी से इन दोनों की सारी ख़ुशी मातम में तब्दील हो चुकी है। उन्हें इस बच्ची के भविष्य को लेकर तमाम आशंकाओं ने घेर लिया है। दिन तो जैसे-तैसे गुज़ार लिया था लेकिन रात की तन्हाई में दोनों के जज़्बात बेकाबू होकर आंसुओं के रूप में बह निकले हैं।
मियां, जो एक बेहतरीन शाइर भी है, वो अब तक अपने यहां बेटी होने की ख़ुशी में गुम था, लेकिन अब उस पर जैसे दुःख का पहाड़ टूट पड़ा है। उसे समझ नहीं आ रहा है कि वो ख़ुद को संभाले या अपनी बीवी को। और फिर सारी रात कुदरत की बारिश के साथ मियां-बीवी की आंखों से होती बारिश का मुक़ाबला जारी रहा।
*CUT TO…*

ये शाइर थे शादां ख़ानदान से त’आल्लुक रखने वाले हर दिल अज़ीज़- *रहबर इंदौरी सा.*, जो इसहाक़ ‘असर’ सा. के बाद मेरे भी उस्ताद थे।
रहबर इंदौरी सा. और उनकी बीवी अब दिन-रात उसी बच्ची की फ़िक्र में गुम रहने लगे थे। रहबर सा. ने एक दिन मुझे बताया था कि इस बच्ची के बारे में जब से डाक्टर ने ये बताया कि वो कभी बोल-सुन नहीं पाएगी, तभी से मुझे उसकी ज़िंदगी को लेकर डर-सा लगने लगा था। कई दिनों बहुत परेशान रहा। नींद न आने की बीमारी सी हो गई और उसी दौरान मुझसे एक रात एक नज़्म हुई। मुझे याद है कि जब ये नज़्म मैं लिख कर ख़त्म कर रहा था, तब तक आधी से ज़्यादा रात बीत चुकी थी। जैसे ही मैंने डायरी में नज़्म लिखकर उसे रखा तो देखा कि मेरी बीवी जाग गई थी।
उसने मुझसे कहा- *क्या लिख रहे थे?*
मैंने कहा- *सुनोगी?*
उसने कहा – *हां।*
और फिर मैंने पढ़ना शुरू किया। उसे पढ़ते-पढ़ते मैं भी रो रहा था और सुनते-सुनते मेरी बीवी भी।
पता नहीं फिर उस रात हम दोनों कब तक रोते रहे और उस बच्ची के अच्छे भविष्य के लिए दुआ करते रहे।

*… और फिर हर आंख बरस पड़ी इंडो-पाक मुशायरे में*-
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कुछ महीनों बाद मोती तबेला-इंदौर में एक इंडो-पाक मुशायरा था। शायद ये मुशायरा सरवर ख़ान सा. ने आयोजित किया था। इसमें रहबर इंदौरी सा. को भी आमंत्रित किया गया था। इसमें वसीम बरेलवी, ख़ुमार बाराबंकवी, अज़ीज़ क़ैसी, काशिफ़ इंदौरी, मुज्तर इंदौरी, रशीद शादानी, राहत इंदौरी,मुश्ताक़ चंचल समेत कुछ और भी शाइर शामिल थे। इस निज़ामत शायद मलिक ज़ादा मंज़ूर ने की थी। जब मुशायरा रात एक बजे तक अपना आधा सफ़र तय कर चुका तो नाज़िम ने रहबर इंदौरी सा. को ज़हमत-ए-कलाम दी। रहबर सा. ने कुछ अश’आर सुनाने के बाद आंखें बंद कीं और फिर अपनी गूंगी-बहरी बेटी पर कही वो नज़्म शुरू की, जो उन्होंने कुछ महीने पहले कही थी। नज़्म जैसे-जैसे आगे बढ़ती गई, माहौल में सन्नाटा छाता चला गया। नज़्म पढ़ते वक़्त रहबर सा. की आंखें तो बंद थी लेकिन उनकी आंखों से आंसुओं की धार फूट पड़ी थी और उन आंसुओं की नमी ने उनकी आवाज़ को भी भिगोना शुरू कर दिया था। मुशायरे में ऐसी ख़ामोशी तारी हो गई थी कि जैसे वहां कोई भी मौजूद ही नहीं हो। हर सामइन बस चुपचाप उस नज़्म को जैसे सुन नहीं रहा था बल्कि उसे पी रहा था। तक़रीबन दस मिनट की ये नज़्म जब ख़त्म हुई तो न तो नाज़िम ही अपने आप में था,न स्टेज पर बैठा कोई शाइर और न सामइन। फिर जैसे ही रहबर सा. नज़्म ख़त्म कर के अपनी जगह पर जाने को मुड़े तब सभी को होश आया और यकायक सबके हाथों से तालियों गूंज उठी, लेकिन इन तालियों से भी नमी का रिसाव साफ़ दिखाई पड़ रहा था।
आइए,आज *रहबर इंदौरी सा.* की वही नज़्म आप भी मुलाहिज़ा फरमाइए –

*—–फ़र्ज़ी किरदार—-*
*मेरी इक बेटी, मेरी आंखों का नूर,*
*बन गई मेरे दिल का इक नासूर*
*उफ़ मेरा बख़्त,आह उसका नसीब,*
*पैदा होते ही मर गई जो ग़रीब*
*उसके मरने का सारे घर को पता,*
*दो सवा दो बरस के बाद चला,*
*दूध जिसने उसे पिलाया है,*
*प्यार से गोद में खिलाया है,*
*उस पे भी जब हुआ है राज़ ये फ़ाश*,
*परवरिश कर रही है वो एक लाश,*
*क्या कहूं मामता पे क्या गुज़री,*
*वही जाने के उस पे क्या गुज़री,*
*दिल पे गहरी ख़राश आज भी है,*
*मेरे घर में वो लाश आज भी है।*

*रंग उसका गुलाब जैसा है,*
*चेहरा भी माहताब जैसा है,*
*उसकी आंखें हैं गोया चश्म-ए-गिज़ाल,*
*नर्म रेशम से हैं सुनहरे बाल,*
*खाती पीती है,सोती जागती है,*
*सहन में दौड़ती है भागती है,*
*रोती है कहकहे लगाती है,*
*ख़फ़ा होती है मान जाती है,*
*वो घरौंदे बना के खेलती है,*
*मिट्टी की रोटियां भी बेलती है,*
*अपनी गुड़िया से प्यार करती है,*
*उसके सोलह सिंगार करती है,*
*ज़िंदों की तरह करती है हर काम,*
*ज़िंदगी उसपे फिर भी है इल्ज़ाम,*

*उसकी दुनिया बड़ी अंधेरी है,*
*मेरी ये बेटी गूंगी-बहरी है।*

*सुन सकेंगे हम उनका तोतलापन*,
*नहीं दिखती उम्मीद की वो किरण,*
*गर्म को वो गनम न बोलेगी,*
*कभी पानी को मम न बोलेगी,*
*आज बच्ची है, ठीक है लेकिन,*
*कल जवानी के भी ये देखेगी दिन,*
*सोचता हूं जब इसका मुस्तक़बिल,*
*जाने क्यूं कांपता है मेरा दिल,*
*दिल में आते हैं वसवसे क्या-क्या,*
*मैं किसी को बता नहीं सकता,*
*है ये जीना तो कोई ख़ाक जिये,*
*सोचता रहता हूं कि उसके लिए,*
*किसी अच्छे भले से लड़के का,*
*कौन लेकर पयाम आयेगा,*
*आजकल नौजवान लड़के सभी,*
*चाहते हैं पढ़ी लिखी बीवी,*
*इल्म तो ख़ैर दस्तरस में नहीं,*
*बात करना भी उसके बस में नहीं,*
*कोईआवारा,बदमुआश,निकाम,*
*कोई बूढ़ा, अधेड़ या बदनाम,*
*हाथ या पांव से कोई मोहताज,*
*जिसको बेटी न दे रहा हो समाज,*
*सामने आएंगे कुछ ऐसे ही नाम,*
*फिर ग़नीमत समझ के कोई पयाम,*
*हो के मजबूर हम करेंगे कुबूल,*
*आग में झोंक देंगे प्यार का फूल,*

*भाई-बहनों में, कुनबे वालों में,*
*हमनशीनों में,हम ख़यालों में,*
*बा-शऊरों में बा-तमीज़ों में,*
*मेरे यारों मेरे अज़ीज़ों में,*
*काश ऐसा कोई मिला होता,*
*जिसने झूठे ही ये कहा होता,*
*है ये लड़की मेरी नज़र में भी,*
*चार लड़के हैं मेरे घर में भी,*
*मैं किसी एक को मना लूंगा,*
*इसको अपनी बहू बना लूंगा,*
*उफ़ ये क्या सोचने लगा हूं मैं,*
*ऐसा लगता है गिर गया हूं मैं,*
*ये ख़याल आया क्यूं मेरे नज़दीक,*
*दूसरे भी हों मेरे ग़म में शरीक़*,
*ख़ुद से बेगाना हो गया शायद,*
*मैं भी दीवाना हो गया शायद,*

*वालदेन इसको पाल सकते हैं,*
*ज़िंदगी भर संभाल सकते हैं,*
*हां, मगर इसके बाद क्या होगा,*
*कौन इस बेज़बान का होगा,*
*आह ये बदनसीब, ख़ाना ख़राब,*
*भाइयों भावजों पे होगी अज़ाब,*
*उसको अपनाएंगे बिरादर क्या?*
*रहम फ़रमाएंगे बिरादर क्या?*
*कौन पूछे जहां के मालिक से,*
*इस ज़मीं-आसमां के मालिक से,*
*थी न दुनिया में जिसकी गुंजाइश,*
*क्या ज़रुरी थी उसकी पैदाइश,*
*अब तो बस एक आस है ‘रहबर’,*
*किसी ईसा के पांव की ठोकर,*
*इसका तीरा नसीब चमका दे,*
*इस अदम को वजूद में ला दे,*
*तब ये शायद ज़बान खोल सके,*
*और एहल-ए-जहां से बोल सके,*
*दास्तान-ए-जहां में ऐ लोगों,*
*फ़र्ज़ी किरदार मुझको मत समझो,*
*मैं तुम्हारी तरह हक़ीक़त हूं,*
*ज़ीस्त की मैं भी एक मूरत हूं,*

*मेरी ये बेटी, मेरी आंखों का नूर,*
*इसके जैसे हैं जितने भी माज़ूर,*
*मेरे भाई हैं, मेरे बच्चे हैं,*
*जो बड़े हैं, बुज़ुर्ग जैसे हैं,*
*मेरे शाइर ने इनको देखा है,*
*इन पे सोचा है,इनको समझा है,*
*उनके हक़ में मेरी सिफ़ारिश है,*
*एहल-ए-दुनिया से ये गुज़ारिश है,*
*भीक इनको न दें, सहारा दें,*
*इनके हो जाएं,इनको अपनाएं,*
*देश अपना इन्हें विदेश लगे,*
*इनके जी पर न ऐसी ठेस लगे,*
*हम करोड़ों हैं,हम में चंद हैं ये,*
*ये न समझें के दर्दमंद हैं ये,*
*दास्तान-ए-जहां में ऐ लोगों,*
*फ़र्ज़ी किरदार इनको मत समझो,*
*ये हमारी तरह हक़ीक़त हैं,*
*ज़ीस्त की ये भी एक सूरत है।*

(*अखिल राज*, *पत्रकार-लेखक-शायर*)

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