भीतर के सन्नाटे की दर्द भरी गूँज है डॉ. तृप्ति ‘ काव्यांशी ‘की कविताएँ
काव्यांशी की पुस्तक 'अंतरगूंज' की समीक्षा

डॉ. तृप्ति का पूरा नाम है तृप्ति वीरेंद्र गोस्वामी ‘ काव्यांशी ‘ । वे शब्द के महत्व को समझती हैं और फ़िलवक्त उसे ही साधने की हरचंद कोशिश में लगी हैं । उनके भीतर सन्नाटे की चीखें हिलोरे मार रही हैं । और उन्हीं चीखों को कविता की शक्ल देने का नाम है ‘ अंतर गूँज ‘ । यह उनका पहले कविता – संग्रह का नाम है।
कवयित्री तृप्ति की कविताएँ इस संग्रह के पूर्व और पश्चात् भी प्रिंट मीडिया और सोशल मीडिया पर पढ़ी जाती रही हैं । डॉ. तृप्ति ‘ काव्यांशी ‘ ने सच्चे अर्थ में काव्यांश को ही साधा है। समग्र काव्य को साधना शेष है । डॉ. तृप्ति उसी साधनारत साधिका का नाम है ।
तृप्ति की कविताओं से गुज़रने पर मैंने पाया कि वे सामाजिक सरोकार की कवयित्री हैं और संवेदना का सतत झरना उनके भीतर पूरे वेग से प्रवाहित हो रहा है । वे जहाँ घर – परिवार में टूटते – बिखरते – रिसते हुए रिश्तों को देखती हैं वहीं समाज में दलित – शोषित – पीड़ित और वंचित जन के हृदय के हाहाकार को भी सुनती हैं । लड़कियों के साथ हो रही अकथनीय घटनाओं को देख रही हैं तो मजदूर और किसान की पीड़ाओं से भी गुज़र रही हैं । और इस बात की गवाह है उनकी ‘ किसान ‘ , ‘ मजदूर ‘ , ‘ भूख ‘ , ‘ श्रमिक ‘ , ‘ किन्नर ‘, ‘ सफ़ाईकर्मी ‘ , ‘ मेहनत ‘ और ‘ वृद्धाश्रम ‘ जैसी कविताएँ ।
प्रीति की कविताएँ आँसुओं से भीगी और वेदना की कोख से पैदा हुई हैं और निरंतर एक द्वंद्व को जीती हैं। वे अपनी ‘ वेदना ‘ शीर्षक कविता में कहती हैं :
आँसू बन नदिया बनी
नदिया बह कर सिंधु
सिंधु उमड़ फिर वेदना
दिया मुझे फिर द्वंद्व ।
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यह वेदना का द्वंद्व ही उनकी असली रचना – भूमि है।
इंसानियत में इस कवियत्री का गहरा विश्वास है । आज बाज़ारवाद के युग में मनुष्यता का ग्राफ निरन्तर गिरता जा रहा है। डॉ . तृप्ति लिखती हैं :
मानवता सदा बनी रहे
कभी न हो ये शर्मसार।
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समाज द्वारा उपेक्षित और परिवार द्वारा निष्कासित ‘ किन्नर ‘ विषय पर कविताएँ नहीं के बराबर लिखी गई हैं । कहानियां ज़रूर मिलती हैं। कवयित्री तृप्ति ने किन्नरों की व्यथाकथा पर बहुत मर्मस्पर्शी कविता लिखी है । वे अपनी ‘ किन्नर ‘ कविता में कहती हैं :
जन्म बना एक गाली
जीवन भर बदहाली।
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इसी तरह वैश्यावृत्ति पर उनकी एक महत्वपूर्ण कविता है । वे स्त्री – जाति द्वारा किसी मजबूरी में अपनाए गए इस पेशे की त्रासदी पर भावुक होते हुए लिखती हैं :
भोग विलास की वस्तु मान
हुई नैतिकता लुप्त जब
निर्धनता ही शापित हुई
जन्मी वैश्यावृत्ति तब ।
श्रमिक के प्रति कवयित्री तृप्ति ‘ काव्यांशी ‘ की गहरी संलग्नता है । वे न केवल श्रम के महत्व को भलीभाँति समझती हैं बल्कि श्रम के सौंदर्य को भी रेखांकित करती हैं। अपनी ‘ मजदूर ‘ कविता में कवयित्री तृप्ति बहुत ही महत्वपूर्ण बात कहती हैं : ‘ है श्रमिक प्रगति का सूत्रधार ‘ ।
वह श्रमिक ही है जो अभावों में जी कर भी विकास की गतिकी को गति देता है ।
कवयित्री को जब – जब काग़ज़ लिखने को पुकारता है वह कलम थामकर लिखने बैठ जाती है। वे कहती हैं :
कोरा कागज़ बोल रहा
मुझ पर सब अरमान लिख
दिल में जो तेरे है वह
अपनी हर बात लिख ।
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और इसके साथ ही कवयित्री अपने अन्तर्मन की गूँज को आकार देने कलम थाम कर कविता लिखने बैठ जाती है।
जहाँ तक काव्यभाषा और शिल्प का सवाल है , उनका यह पक्ष अभी और अधिक साधना की मांग करता है । अभी तो लिखने की शुरुआत है । शब्द को साधना कठिन ज़रूर है पर नामुमकिन नहीं । आशा की जानी चाहिए कि उनका आगामी कविता – संग्रह इस दृष्टि से भी सफल होगा ।
डॉ . तृप्ति ‘ काव्यांशी ‘ की ख़ूबी यह है कि वे कभी निराश होना नहीं जानती । वे कहती भी हैं :
इस धरा पर रख क़दम
मैं छूना चाहती हूँ आसमान ।
मुझे पूरा विश्वास है कि वे काव्यसृजन के आगामी पड़ाव तक काव्यशिल्प और शब्दों के स्थापत्य को साधने में क़ामयाब होंगी।
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अंतर् गूँज ( कविता – संग्रह )
डॉ. तृप्ति वीरेंद्र गोस्वामी ‘ काव्यांशी ‘
प्रिन्सेप्स प्रकाशन , बिलासपुर ( छ. ग.)
मूल्य : ₹ 200 /-
डॉ . रमाकांत शर्मा
94144 10367