
उत्तराखंड के पौराणिक महत्व के स्थलों में महर्षि कण्व की तपोस्थली, शकुंतला-दुष्यंत की प्रणय स्थली एवं चक्रवर्ती सम्राट भरत की जन्मस्थली कण्वाश्रम का विशिष्ट स्थान है। 17 नवंबर 1955 को जब अभिभाजित उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. संपूर्णानंद कोटद्वार आए थे, तब उन्होंने कहा था, ‘मुझे आश्चर्य हुआ यह जानकर कि जिस स्थान में उस बालक ने जन्म लिया, जिसके नाम पर इस देश का नाम भारत पड़ा, उसे कोई नहीं जानता। दूसरे देशों में तो न जाने वहां क्या बन गया होता।’ दुर्भाग्य देखिए कि सरकारों ने इसके बाद भी कभी कण्वाश्रम की अहमियत नहीं समझी। उत्तराखंड के उत्तर प्रदेश से अलग होने के बाद भी। इसी उपेक्षा का नतीजा है कि कण्वाश्रम देश तो छोड़िए, उत्तराखंड के प्रमुख पर्यटन स्थलों में भी स्थान नहीं बना पाया, जबकि देखा जाए तो कण्वाश्रम देश की एक महत्वपूर्ण धरोहर है।
गढ़वाल का प्रवेश द्वार कोटद्वार पौड़ी गढ़वाल जिले का सबसे बड़ा ही नहीं, हर दृष्टि से महत्वपूर्ण शहर है। शिवालिक पर्वतमाला की गोद मे बसा यह शहर एक दौर में बदरी-केदार का प्रवेश द्वार भी रहा है। यहां से महज दस किमी दूर चारों ओर वनों से आच्छादित वह ऐतिहासिक खूबसूरत घाटी है, जिसे कण्वघाटी नाम से पुकारा जाता है। तमाम खोजों से यह सिद्ध हो चुका है कि प्राचीन कण्वाश्रम का अस्तित्व भी इसी घाटी में रहा है। इसलिए यहीं वर्तमान कण्वाश्रम की आधारशिला रखी गई। कण्वघाटी से होकर ही मालन (मालिनी) नदी मैदान में प्रवेश करती है, इसलिए इसे मालन घाटी भी कहते हैं। मालन नदी गढ़वाल के चंडाखाळ डांडा से निकलती है और हिमालय की शिवालिक पर्वतमाला को पार कर उत्तर से दक्षिण की ओर सर्पिणी की भांति तीव्र वेग से आगे बढ़ती है। कण्वाश्रम पहुंचने के बाद मालन गढ़वाल भाबर के ऊबड़-खाबड़ मैदान से होकर उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले की समतल भूमि वाले एक बड़े नगर नजीबाबाद से कुछ दूर रावलीघाट नामक स्थान पर गंगा में विलय हो जाती है। यह स्थान बिजनौर शहर से छह मील उत्तर की ओर पड़ता है।
मालन घाटी में जंगली आम, पीपल, शीशम, हैड़, बहेड़ा, आंवला, साल, सागौन, खैर, कींकर, चमेली, अमलतास, सरीस, जंगली गुलाब, ढाक, कुश, अपराजिता, इंगुदी, वनज्योत्सना आदि वनस्पतियों की भरमार है। जगह-जगह नजर आने वाले केले के झुरमुट भी घाटी का आकर्षण बढ़ाते हैं। स्वच्छंद विचरण करते हिरण, सुअर, हाथी, गुलदार, जड़ाऊ, नीलगाय जैसे वन्य जीव और कोयल, चकोर, तीतर, मोर, जंगली मुर्गे, कबूतर इत्यादि पक्षियों का कलरव यहां मन को मोह लेता है। शृंगार रस में डूबी मालन आज भी उसी अल्हड़ता से अठखेलियां करती हुई बह रही है, उसके जिस अल्हड़पन का उल्लेख महाकवि कालिदास ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘अभिज्ञान शाकुंतल’ में किया है। जैसे-जैसे हम घाटी में प्रवेश करते हैं, उसकी मोहकता बढ़ती चली जाती है। मृगों के झुंड अब भी चौकड़ी भरते हुए यत्र-तत्र दिखाई पड़ते हैं। कण्व स्मारक से उत्तर की ओर जाने पर पर्यटक मालन की रमणीक घाटी में प्रवेश करता है।
नदी के बांयी ओर जिला बोर्ड की पुरानी सड़क है, जिस पर कभी खच्चरों से सामान का ढुलान होता था। पहले यह प्रमुख सड़क हुआ करती थी, जो गंगा और नयार नदी के संगम स्थल व्यासघाट (व्यासचट्टी) को जोड़ती है। एक दौर में हरिद्वार से चौकीघाटा (कण्वाश्रम) होते हुए इसी रास्ते यात्री व्यासघाट होकर बदरी-केदार दर्शन को जाते थे। उस समय अकाल पड़ने पर यहां से 14 मील दूर नजीबाबाद मंडी से अनाज गढ़वाल पहुंचाया जाता था। चौकीघाटा पहले छोटी एवं भरपूर मंडी था, लेकिन वर्ष 1924 की बाढ़ ने इसे एक प्रकार से नष्ट कट दिया। चौकीघाटा के समीप सतीमठ और अन्य जीर्ण-शीर्ण प्राचीन खंडहर, जिनका ऐतिहासिक महत्व है, आज भी जंगल में लावारिस पड़े देखे जा सकते हैं। काश! इस अमूल्य धरोहर को सरकार सुरक्षित रखने का उपाय करती।
कण्वाश्रम से व्यासघाट मार्ग पर करीब डेढ़ किमी चलने के बाद एक पुराना पुल पड़ता है, जिसके बायें बाजू से उतरकर एक संकरी बटिया होते हुए सहस्रधारा के दीदार होते हैं। यहां करीब 200 फ़ीट की ऊंचाई से जब मोतियों जैसे श्वेत बिंदु तन का स्पर्श करते हैं तो मार्ग की थकान उड़नछू हो जाती है। झरने के समीप आम और केले के झुरमुट हैं। इतने खूबसूरत स्थल को कितने लोग जानते हैं, यह सवाल आज भी मुहं चिढ़ा रहा है। पर्यटन विभाग भी शायद ही इस बारे में जानकारी रखता हो। वैसे तो कण्वाश्रम के विकास को कई योजनाएं फाइलों में बनीं, लेकिन न कुछ बदलना था, न बदला ही। वर्ष 1955 में अविभाजित उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. संपूर्णानंद ने गढ़वाल के जिलाधीश गौरीशंकर बागची को कण्वाश्रम का जीर्णोद्धार करने के लिए प्रेरित किया। परिणामस्वरूप एक समिति गठित हुई।
इस समिति ने वर्ष 1956 में अभिभाजित उत्तर प्रदेश के तत्कालीन वनमंत्री जगमोहन सिंह नेगी के हाथों कण्व स्मारक की शिला रखवाई और निश्चय किया कि प्रतिवर्ष वसंत पंचमी को यहां भव्य मेला आयोजित किया जाएगा। तब से मेला तो यहां वर्ष-दर-वर्ष आयोजित हो रहा है, लेकिन यह मेला भी अपनी छवि अन्य मेलों से हटकर नहीं बना पाया। यहां तक कि इसके बारे में जानकारी भी अभी बेहद सीमित है। शायद ही कोटद्वार से बाहर के लोग इस बारे में कुछ जानते होंगे। पर्यटन विभाग ने यहां जो खूबसूरत टूरिस्ट बंगला बनवाया हुआ है, उसमें ठहरना भी कोई पसंद नहीं करता। माहौल ही ऐसा है।
-दिनेश कुकरेती, वरिष्ठ पत्रकार