म.प्र. उर्दू अकादमी को उर्दू से परहेज़ क्यों
*♦️ अकादमी के प्रचार-प्रसार सामग्री में 90 फ़ीसद से ज़्यादा देवनागरी का इस्तेमाल, अकादमी के स्टाफ समेत कई कार्डिनेटर्स को नहीं आती उर्दू, फ़िलबदी मुशायरे में अकादमी के स्टाफ के साथ कार्डिनेटर्स की भी ली जाए उर्दू की परीक्षा-*

इंदौर: कई लोगों के ये ग़लतफ़हमी है कि सरकार उर्दू भाषा के साथ सौतेला व्यवहार करती है। ऐसे लोगों को सबसे पहले ये जान लेना चाहिए कि अगर सरकार की ऐसी मंशा होती तो फिर वो उर्दू अकादमियों की स्थापना क्यों करती? क्यों उर्दू भाषा के प्रोत्साहन और संरक्षण के लिए बाकायदा पैसों का प्रावधान करती ? इसका अर्थ है कि सरकार तो अपना काम ईमानदारी से कर रही है लेकिन उस महकमे में बैठे लोग ही उर्दू भाषा के साथ सौतेला व्यवहार कर रहे हैं। म.प्र. उर्दू अकादमी इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण है।
आप अगर मध्यप्रदेश शासन के संस्कृति संचालनालय की वेबसाइट पर जाएंगे तो उर्दू अकादमी की स्थापना का जो मूल उद्देश्य वहां पर लिखा है,उसका एक अंश हूबहू आप यहां पढ़ें –
*उर्दू अकादमी का गठन राज्य शासन द्वारा 1976 में किया गया। 2 जुलाई 2014 को इसका विलय किया गया। अकादमी मध्यप्रदेश में उर्दू भाषा, तालीम और साहित्य के प्रोत्साहन, संरक्षण के लिए आवश्यक प्रयत्न करती है। नये रचनात्मक और आलोचनात्मक उर्दू साहित्य का प्रकाशन। साहित्य सम्मेलन, परिचर्चा, गोष्ठियों का आयोजन। लायब्रेरियों की इमदाद, ज़रूरतमंद और बीमार लेखकों की माली मदद, साहित्यिक और सांस्कृतिक इदारों को उनके आयोजन के लिए सहायता प्रदान करती है।*
अब शासन ने तो उर्दू के प्रोत्साहन और संरक्षण का ज़िम्मा उर्दू अकादमी को सौंप दिया लेकिन उनमें बैठे लोग ही जब उर्दू के बजाए देवनागरी में ही काम करना जानते हों तो फिर सरकार क्या करे।
याद रखें अगर किसी भी भाषा की लिपि( रस्म-उल-ख़त)का आप उपयोग ही बंद कर देंगे तो धीरे -धीरे वो भाषा ख़ुद ही दम तोड़ देगी। जबकि उसी लिपि के संरक्षण और प्रोत्साहन के लिए ही सरकार ने उर्दू अकादमी की स्थापना की है।
*उर्दू अकादमी कैसे उर्दू लिपि को ख़त्म कर रही है, आइए उसके कुछ उदाहरण देखें-*
आप उर्दू अकादमी के द्वारा भोपाल में फरवरी 2023 में जो *’जश्ने उर्दू’* कार्यक्रम करवाया गया। उर्दू के नाम पर लाखों रुपए ख़र्च हुए। अकादमी ने बड़े-बड़े कार्यक्रम करवाए, उसके सारे पोस्टर देखिए जो मैं यहां पोस्ट कर रहा हूं। वो पोस्टर देखकर आप ख़ुद फ़ैसला कर लेंगे कि उर्दू अकादमी, उर्दू भाषा के प्रोत्साहन और संरक्षण के बजाय उर्दू भाषा के साथ कैसा मज़ाक कर रही है।
*’जश्ने उर्दू’* के पोस्टरों में नाम मात्र को उर्दू रस्म-उल-ख़त का इस्तेमाल किया गया है। बाक़ी पूरे पोस्टर का मैटर हिंदी में है।
अगर उर्दू अकादमी को हिन्दी में ही काम करना है तो फिर इस पर सरकार को इस पर क्यों पैसे ख़र्च करना चाहिए? ये काम तो इनसे अच्छा हिन्दी अकादमी ही कर लेगी। गूगल से *जश्ने आजादी* उठाओ और पेस्ट करो, फिर सारा मैटर हिन्दी में लिख दो..बस हो गया काम।
उज्जैन में भी उर्दू अकादमी ने यही किया। सिर्फ *जश्ने आजादी मुशायरा* उर्दू में लिखवाया बाक़ी पूरा मैटर हिंदी में लिख दिया।
मैंने और भी कुछ कार्यक्रमों के जो पोस्टर पोस्ट किए हैं उनमें से कुछ पोस्टरों में तो उर्दू का एक लफ़्ज़ तक नहीं है।
ग़ौरतलब तलब है कि राज्य शासन ने उर्दू अकादमी की तरह संस्कृत अकादमी, सिन्धी अकादमी, पंजाबी अकादमी, मराठी अकादमी, भोजपुरी अकादमी भी स्थापित कर रखी है। ये अकादमियां जिस भाषा के उत्थान के लिए बनाई गई है, उनके कार्यक्रमों के प्रचार-प्रसार में पहले उसी भाषा को प्राथमिकता दी जाती है। फिर साथ में ज़रूरी हो तो हिंदी में भी उसे अनुवाद कर दिया जाता है। सिर्फ उर्दू अकादमी अकेली ऐसी संस्था है जिसे जिस भाषा के उत्थान के लिए बनाया गया है, वो उस भाषा के बजाय हिंदी का उपयोग करती है।
*लगता है उर्दू अकादमी में उर्दू जानने वाले नहीं हैं-*
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म.प्र. उर्दू अकादमी जिस तरह से अपने प्रोग्रामों के पोस्टरों में और आफिशियल लेटर्स में हिंदी का इस्तेमाल करती है, उससे ऐसा लगता है कि अकादमी में उर्दू जानने वाला कोई नहीं है। तभी उसे अधिकांश काम हिंदी में करना पड़ रहा है। इसका सबूत कुछ साल पहले इंदौर में हुए एक प्रोग्राम में मिला। हुआ यूं कि उर्दू अकादमी ने जो प्रोग्राम इंदौर में रखा था, उसका दावतनामा उर्दू में छपवाया। उस दावतनामे में इमले की ग़लती हो गई। ये बात पूरे शहर में चर्चा का विषय बन गई और उर्दू अकादमी की बड़ी बदनामी हुई। तब से लेकर आज तक उर्दू अकादमी ने उर्दू में यहां कोई दावतनामा नहीं छपवाया। मैं इंदौर में हुए प्रोग्रामों के भी पोस्टर भी यहां पोस्ट कर रहा हूं। आप उसे भी देखें और सोचें कि क्या देवनागरी में काम करने से उर्दू का संरक्षण संभव है?
*स्टाफ और कार्डिनेटर्स की भी ली जाए परीक्षा-*
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मैंने जो आल इंडिया मुशायरे के शायरों के साथ प्रदेश के शाइरों का एक फ़िलबदी मुशायरा करवाने का जो ज़िक्र किया था, उसी प्रोग्राम में उर्दू अकादमी के स्टाफ और उसके कार्डिनेटर्स की भी परीक्षा होनी चाहिए ताकि पता चले कि किस-किसको उर्दू आती है। इन सब को उसी तरह डिक्टेशन देकर एक-एक पेज लिखवाया जाना चाहिए जैसा स्कूल में टीचर बच्चों के साथ करते हैं। क्योंकि सरकार ने इनको उर्दू भाषा के प्रोत्साहन और संरक्षण के लिए नियुक्त किया है जो एक अहम काम है। इसलिए लिए इनकी क़ाबिलियत का परीक्षण तो सबसे ज़्यादा ज़रूरी हो जाता है।
*तो फिर देवनागरी में छपी किताबों को भी अवार्ड में शामिल करे अकादमी-*
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जब उर्दू अकादमी के आफिशियल लेटर्स और प्रोग्रामों के प्रचार-प्रसार में ज़्यादातर हिंदी का ही इस्तेमाल हो रहा है तो फिर
सवाल ये उठ रहा है कि उर्दू अकादमी को हिंदी में छपी ग़ज़ल की किताबों से इतनी नफ़रत क्यों? क्यों इन किताबों को वो अवार्ड में शामिल नहीं करती ? क्या सरकार ने उसे ये कह रखा है कि आप अकादमी का 90 काम हिंदी में करें मगर हिन्दी में छपी ग़ज़ल की किताबों को अछूत मानें? इस भेदभाव का कारण क्या है? राज्य सरकार को इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि जो उर्दू अकादमी, उर्दू भाषा की तरक़्की के लिए बनाई गई है, वो जब हिंदी में ही काम कर रही है तो इसका विलय हिंदी अकादमी में ही क्यों न कर दिया जाए। इससे सरकार का ख़र्च बचेगा जिसे वो अन्य कल्याणकारी योजनाओं में इस्तेमाल कर सकेगी।
(अखिल राज
*पत्रकार-लेखक-शायर)