उत्तराखंडटीका-टिप्पणीमुशायरा/कवि सम्मेलनसाहित्य

कवि सम्मेलन के मंच पर शायरी क्यों हो रही हावी

सुप्रसिद्ध गीतकार बुद्धिनाथ मिश्र की पोस्ट पर कवियों की बेबाक और बेबस टिप्पणियां

    सुप्रसिद्ध गीतकार बुद्धिनाथ मिश्र जी ने 24 मार्च को फेसबुक पर एक पोस्ट डाली, जिसमें कवि सम्मेलन के मंच पर शायरी को लेकर चिंता व्यक्त की गई। मैंने बुद्धिनाथ मिश्र जी की उस समय की पोस्ट तो नहीं देखी, लेकिन जब मैं अपने शहर के विद्वान और सहृदय कवि डा. राम विनय सिंह की फेसबुक को टटोल रहा था, तो आदरणीय मिश्र जी की पोस्ट पढ़ने को मिली, जिसमें तमाम कवियों की टिप्पणी थी। कवियों के इस प्रलाप को देखकर मैं खुद को रोक नहीं पाया और इनमें से कुछ की टिप्पणी हूबहू आदरणीय मिश्र जी से क्षमा सहित अपने पोर्टल ‘शब्द क्रांति लाइव डाट काम’ में दे रहा हूं। आप भी इन कवियों की चिंताओं से रूबरू होइए।

Udaypratap Singh

आदरणीय भाई बुद्धि नाथ जी नमस्कार

“हिंदी और उर्दू में फर्क़ है इतना वह ख्वाब देखते हैं हम देखते हैं सपना”

 यह अकबर इलाहाबादी का मशहूर शेर है ।

इसका अर्थ यह है कि हिंदी और उर्दू मूलतः एक ही भाषाएं हैं। अंग्रेजों की फूट डालो और राजनीति करो की शिकार होकर इनको धर्म के अनुसार बांटा गया, जो अनुचित है अकबर इलाहाबादी ने आगे लिखा है

“वह उर्दू को अरबी क्यों ना करें हम हिंदी को भाषा क्यों ना करें जिससे फलक़ का दिल बहले हम लोग तमाशा क्यों ना करें”

 यहां भी वे यही कहना चाहते हैं कि अगर थोड़ी सी संस्कृति हो गई तो हिंदी हो गई और एक दो  शब्द अरबी केआ गए तो वह उर्दू हो गई यह सोच असामाजिक है। विघटनकारी है।संकीर्ण है।

 आप कुर्ता, पजामा, कुर्सी, मेज, तकिया, फर्श, जैसे शब्दों का प्रतिदिन प्रयोग करते हैं। यह सब अरबी के शब्द हैं जो उर्दू के माध्यम से हमारे जनमानस मेंटनेंस और बोले जाते हैं। कुर्सी की हिंदी आसंदी होती है , कितने लोग इस्तेमाल करते हैं मेज़ की हिंदी पटल है कितने लोग इस्तेमाल करते हैं? कमीज़ की हिंदी अंगरखा है। आजकल चुनाव नजदीक है और हिंदू मुसलमान करना बीजेपी के लिए बहुत जरूरी है, बहुत हीजरूरी है। जो लोग बीजेपी की मदद करना चाहते हैं वह किसी ने किसी बहाने से ऐसा मुद्दा छेड़ देते हैं जिसमें धर्म का बंटवारा हो जाए ।आदरणीय!पर भाषा पर कृपा रखिए, भाषा किसी धर्म की नहीं होती मैंने उर्दू और हिंदी साथ-साथ पढीं थी। कहने का तात्पर्य यह है कि मैं आपके इस कथन से असहमत हूं ।बडी विनम्रता पूर्वक।

“हिंदी उर्दू साथ रही आज़ादी की क़ुर्बानी में

अशफ़ाकउल्ला भगतसिंह ने जोड़े पृष्ठ कहानी में

वतन शमा के परवाने जलते थे भरी जवानी में “

तब अंग्रेज गया भारत से आग लगाकर पानी में”

 

मुझे एक और घटना याद है जब उत्तर प्रदेश में उर्दू को द्वितीय भाषा घोषित किया गया तब  कुछ कट्टरपंथियों ने उसके विरोध के लिए नारा बनाया था।

‘ “जो उर्दू थोपी लड़कों पर तो खून बहेगा सड़कों पर “

इसमें हास्यास्पद बात यह है कि उर्दू के विरोध के लिए जो नारा बनाया था हिन्दी अन्धभक्तो ने  उसमें पांच शब्द उर्दू के हैं। हिंदी में यह नारा होना चाहिए था कि यदि उर्दू  युवकों पर आरोपित की गई तो मार्ग पर रक्त प्रवाहित होगा।

मुशायरा और कविसम्मेलन में वही अन्तर  है  जो( जल और पानी में है।) सादर प्रणाम  बुरा  मत मानना।

 

Buddhi Nath Mishra

Udaypratap Singh आदरणीय भाई साहब, सबसे पहले आपको होली का नमन। मेरा विचार  हिंदी और उर्दू के बीच भेद-विभेद करने का नहीं है। मेरी चिंता केवल यह है कि हिंदी के कवि अपने काव्य पाठ की परंपरा से दूर होते जा रहे हैं। उर्दू के शायर अपनी परंपरा से पूरी तरह जुड़े हैं।जबकि हिंदी के कवि शायरों की भोंड़ी नकल करते हुए बड़े दयनीय लगते हैं।

 

Udaypratap Singh

Buddhi Nath Mishra यदि ऐसा है तो मेरी टिप्पणी  निरस्त समझी जाए।

 

Om Nishchal

आओ सब मिल रोवहु

भारत भाई !!

कवि सम्मेलन दुर्दशा देखि न जाई।

 

रोने से कुछ न होगा बंधु । नया लिखने और रचने से होगा।  सारे गीतकार पिछले 50 साल से बस कुछ गीतों की धुन पर रेंग रहे हैं।  कुछ शायर अपने को दोहरा रहे हैं। अपने गिरेबान में झांके क्या हम वाकई नया कुछ लिख रहे हैं। इसलिए हम सब कभी न कभी अप्रासंगिक होने के लिए तैयार रहें । इसमें रोना धोना क्या।  हर नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी को लात लगाती हुई आगे चलती है।  इतना धीरज तो होना ही चाहिए कि आप भवभूति की तरह आश्वस्त रहें।

 

Om Nishchal आप सवाल को दूसरे रूट पर ले गये हैं।

Buddhi Nath Mishra ho sakta hai.

 

Om Nishchal भाई

सही रूट को ग़लत रूट बता रहे हैं बुद्धि नाथ भाई साहब। जो बोया है वो काटना तो ही पड़ेगा।

Ganesh Gunjan:

Om Nishchal प्रिय भाई, ‘इसमें रोना धोना क्या’ तक तो आपने बिल्कुल अनुभव सिद्ध तथ्य कहा है। किन्तु अगला वाक्य ‘… हर नयी पीढ़ी पुरानी पीढ़ी को लात लगाती हुई आगे चलती है ‘उत्कट’ कहना ही नहीं, ‘सर्वथा सच’ भी नहीं लगता है भाई। ऐसे में साहित्य और वाणिज्य की परम्परा के आगे चलने में भेद क्या बचा। साहित्य के साथ भेद अब भी जीवित है। अनुपातत: कम सही, नयी प्रतिभाएंँ पुरानों को प्रणाम करती हुई भी आगे जाती हैं।

 

Anil Goel

Om Nishchal प्रारम्भिक पंक्तियों से सहमत.  लेकिन “हर नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी को लात लगाती हुई आगे चलती है” से असहमत.  हमारी पीढ़ी में अपने से पहले वालों का पूर्ण सम्मान रहा.  यह सब कुछ पिछले तीसेक वर्षों में ही हुआ है.  मेरा प्रश्न यह है, कि कवियों की आपसी लातबाजी से श्रोताओं का नुकसान क्यों हो?  हो रहा है, क्योंकि कवि श्रोता के लिये लिखते ही नहीं!  वे क्यों लिखते हैं, वह सभी जानते हैं.  नये कवियों-कवियित्रियों में भी कुछ बहुत अच्छे लोग आये, लेकिन अब वे भी वही पुरानी कविताएँ ही सुना रहे हैं… कहीं ऐसा तो नहीं, कि उनकी नई कविताएँ सिर्फ “प्राइवेट लिमिटेड” कवि-गोष्ठियों के लिये रिजर्व हो गई हों?

तथापि,

आशा है इसे आप मेरी कोई प्रतिटिप्पणी न मान कर अधिक से अधिक अनुटिप्पणी भर मानेंगे। सस्नेह।

 

Ravipratap singh:

Om Nishchal नया तो आप भी नहीं लिख रहे हैं। आपके बैंक के जमाने के गीतों का ही श्रवण होता है, जब भी होता है गाहे-बगाहे कुछ एक काव्य गोष्ठियों में।…स्वयं कुछ नया लिखिये तो यह कथन भी,उपदेश सा प्रतीत हो!!

 

Ramvinsy Singh:

आपका कड़वा सच बेशक सबको ग्राह्य नहीं होगा भाई साहब; किन्तु यह वास्तविकता तो है ही। लिफाफे के लाभ- लोभ में साहित्य का सौदा करने वाले वे सभी तथाकथित बड़े मंचीय कविमान्य ठेकेदार ही ज़्यादा जिम्मेदार हैं इस पतन के। उस पीढ़ी को साहित्य देवता के मंदिर में मदारी मंडली के मर्कट-नृत्य ने तब अपार अर्थानंद प्रदान किया था और वे मंदस्मिति पूर्वक इसे जनता की माँग बताकर वाहवाही के शब्द भंडार लुटाते नहीं अघाते थे। अब उसी मंडली ने रूप बदलकर खुद को “परफ़ॉर्मर” बतलाते हुए मनोरंजन शुरू कर दिया तो अब क्या दुःखी होना! मुशायरे में तो अभी भी कविता जीवित है, कविसम्मेलन में ही कविता की लाशें ढोई जा रही हैं। हास्य रस के नाम पर परोसे जाते फूहड़ लावारिश चुटकुलों के विरुद्ध किसी गीतकार कवि को बोलते नहीं सुना जाता क्योंकि उन्हें बचे खुचे मंच भी खो देने का भय सताता है अहर्निश। पहले के युग में अपने से योग्य पीढ़ी तैयार करने व उसे आगे बढ़ाने का काम होता था ताकि काव्य वंश उत्तरोत्तर विकसित हो; किन्तु आज अपने बराबर तो क्या आसपास की सामर्थ्य का भी कोई दूसरा रचनाकार दिख जाए तो उसे इतना किनारे किया जाएगा कि वह स्वप्न में भी मंच व्यवसाय के लिए ख़तरा न बन सके। फिर तो बूढ़े बरगद को अमरबेल का शिकार होने से कौन रोकेगा।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button