
- पूरे शहर में धूम मच गई थी….. की 20 तारीख को फलां कवि की पुस्तक ‘अरमानों की जलती चिता ‘ के लोकार्पण के साथ एक विराट कवि सम्मेलन भी हो रहा है। शहर के सभी कवियों को काव्य-पाठ के अवसर के साथ सम्मानित भी किया जाएगा।
तो भई ! सम्मान पाना किसे अच्छा नहीं लगता! सभी अपने-अपने तौर-तरीकों से तैयारियों में जुट गए थे और इस समाचार ने और भी उत्साहित कर दिया था की…. बनारस से फलां कवि, इलाहाबाद के मशहूर शायर , देवबंद से कईं शायरात, सहारनपुर पटना और दिल्ली- मुम्बई तक.. से वरिष्ठ साहित्यकारों के आने की संभावना है।
मन बाग-बाग हो चला था। सबसे मिलने की प्रतीक्षा पल-पल बढ़ती ही जा रही थी।
हमें भी निमंत्रण पत्र प्राप्त हुआ। कार्ड पर वरिष्ठ साहित्यकार के विशेषण के साथ लिखा अपना नाम देखकर फूले नहीं समाए यूँ लगा मानों चाँद छू लिया हो …फिर कुछ बौराए ,कुछ इठलाए और फिर इस सोच से घबराए भी कि ..अब जेब से पांच सौ का एक पत्ता निकाल कर . ..पुस्तकें भी खरीदनी होंगीं और सौ -सवा सौ का एक गुलदस्ता भी लेना ही होगा…
फिर सोचा.. छोड़ो ! एक लाल गुलाब बगीचे से तोड़कर एक बढ़िया सी हरी पत्ती के साथ लगा पकड़ा देंगे तो भी हमारा रुआब कम नहीं होगा। गुलाब का हर रंग ..हर भाव को दर्शाने में समर्थ है… आपकी कईं अव्यक्त भावनाओं की पूर्ति का खुलासा…अकेला गुलाब एक झटके में कर देता है ।
निमंत्रण पत्र पर सुबह आठ बजे से रात के नौ बजे तक का कार्यक्रम छपा था।खूबसूरत रंगबिरंगा…अरे भई ! होता भी क्यों नहीं! इतने सारे मशहूर नामी-गिरामी कवि-कवयित्रियां जो पधार रहीं थीं।पूरी गज भर लंबी फेहरिस्त,,, कार्ड के पार्श्व भाग पर उनकी तस्वीर सहित छपी थी।
हल्की सी सर्दी पड़ने लगी थी।रात बरखा हो जाने से मौसम में खुनकी थी… हमने बक्सा खोला ससुराल से मिला.. फिनायल की गोलियों की खुशबू में लिपटा… अपना एकमात्र सूट निकाल लिया था। पत्नी झल्लाई–सुनो जी यह सूट तो अब पुराने जमाने का हो लिया ..अब के किसी पुस्तक की रॉयल्टी मिले तो एक सूट सिलवा लीजिएगा। आज तो मेरा बुना नया पीले- हरे-लाल नमूने वाला स्वेटर पहनते तो ज्यादा जंचते!
हमने भी तीर छोड़ा…– अरी भागवान ! यह होली का कवि सम्मेलन नहीं है जो लाल-पीले नीले रंग के परिधान पहनूं… बाहर से बड़े- बड़े साहित्यकार आ रहे हैं ।लाल-पीले स्वेटर से रौब नहीं जमता …सूट की बात ही कुछ निराली है। जरा जल्दी से इस पर इस्त्री मार दो …आज नाश्ता-लंच-डिनर-शाम की चाय तक ….सब वहीं पर है ।बस तुम अपने लिए चाहो तो कुछ बना लेना वरना हम तो इतना खा कर आएंगे की कल तक उपवास रहेगा ।
हम समय के बड़े पाबंद थे… सो ठीक समय पर पहुंच गए । होटल के औसत से सभागार में सामने दीवार पर बड़ा सा बैनर लटका था मेज पर फूलों की लड़ियां लटक रही थी ।
मेज़बान कवि बार-बार घड़ी देख रहे थे। कुछ लोग अपने हाथों में पकड़े गुलदस्ते पर नज़र गड़ाए इतरा रहे थे।काफी सारे कवि-गण बाहर के अतिथि-कवियों को घेरे खड़े…उन के शहर में अपने काव्य पाठ की जुगत लगाने की चमचागिरी में थे।
काली गाँधी जैकेट, रेशमी कुर्ता और गले में शॉल लटकाए संचालक महोदय कवि से ज्यादा पिक्चर के हीरो लग रहे थे ।आज तो उनका दिमाग सातवें आसमान पर था और होना ही था,,, आखिर पूरे तीन-चार शहरों में से संचालन के लिए सिर्फ उनका नाम प्रस्तावित था , न जाने… कितनों का गुस्सा, विरोध और नाराज़गी मोल ले कर ।
आयोजक कवि महोदय ने मुख्य-अतिथि के रूप में, हाल ही में बने शहर के नए-नए नेता जी को, जिन्होंने पूरे इक्कीस हजार रुपये देने का वायदा किया था… फेंकू से किस्म के ..झेंपू आदमी को आमंत्रित किया था। जो बोलते तो हकलाते.. पूरी बात कहने में घंटों लगाते …पर बात तो आर्थिक सहयोग की थी और यह वाले नेता ..समय के बड़े पाबंद थे ,अभी राजनीति में जमे न थे ,तो देरी की संभावना भी नहीं थी। बाकी पुराने जमे-जमाए नेता तो एक धेला भी ना खर्चते, ऊपर से लेट हो कर कार्यक्रम का सत्यानाश भी करते ।
पहले भाग में काव्य-पाठ से अधिक सभी कवियों का ध्यान होटल के पार्श्व भाग में सजाए गए गरमा-गरम नाश्ते पर अधिक था… मेहमानों से ज्यादा स्थानीय कवि खाने की मेज पर डटे पड़े थे। गरमा- गरम कचौड़ी आती पर लगने से पूर्व ही वेटर से झपट ली जाती…
मेहमान ऊपर के कमरों में अभी तक सज-संवर ही रहे थे।
तो साहब हुआ यूँ कि होटल वाले ने हाथ खड़े कर दिए… सर आपने सिर्फ़ पचास लोगों का नाश्ता आर्डर किया था …अब तक सत्तर खा चुके हैं… होटल में ठहरे सभी मेहमान अभी बाकी हैं।
मेजबान ने यह सुनते ही फौरन संचालक महोदय के कान में कुछ खुसुर-पुसुर की… संचालक महोदय ,जो स्वयं दस-बारह कचौड़ी नुमा पूरियां… हलवे और आलू की सूखी सब्जी के साथ उदरस्थ कर चुके थे, एक लंबी डकार लेकर उन्होंने कवि की बात पर सिर हिला- हिला कर स्वीकृति दी … तुरंत रुमाल से हाथ और मुंह पोंछते हुए वह माइक पर जा पहुंचे….
हैल्लो- हैल्लो …सभी कृपया अपना स्थान ग्रहण करें… मुख्य अतिथि पहुंचने ही वाले हैं।इसी बीच अध्यक्षता कर रहे ताड़ के वृक्ष सरीखे छः फुट दो-चार इंच के वरिष्ठतम कवि भी अपने नए कुर्ते पजामें में खीसें निपोरते.. सब से हाथ मिलाते…. हॉल में पदार्पण कर चुके थे। बाहर आवाजें गूंजी –मुख्य अतिथि आ गए– मुख्य अतिथि आ गए ।कुछ गहमा-गहमी और बढ़ी.. स्वयं को वरिष्ठ समझने वाले पाँच छः कवि उनके स्वागतार्थ दौड़ कर आगे बढ़े। कुछ ने उन्हें देख मुंह बिचकाया… और पुनः अपनी बातों में लग गए,मानों उनकी दृष्टि में नेता होना एक निकृष्ट व्यक्तित्व का परिचायक था।
कवि बोले— यार इनका क्या काम! आठवीं फेल नेता को भला कविता की क्या समझ ! साहित्य से भला इनका क्या सरोकार ! हमें तो यह पसंद नहीं… मनचले से मझंले कद के मोटा चश्मा लगाए कवि बोले।
—- यार क्या करें खर्चा पानी निकालने को आखिरकार कोई ना कोई जुगाड़ तो करनी ही होती है न! साहित्यकारों के पास धन कहां रहता है? सरस्वती और लक्ष्मी की जोड़ी तो अत्यंत दुर्लभ है।चार फुटिया लम्बे और लगभग उतनी ही वृत्ताकार कमर वाले कवि समझाते हुए बोले।
होटल के कमरों में ठहरे अति वरिष्ठतम विशेषणों से अलँकृत,आमंत्रित कविगण भी पधार चुके थे। वह स्वयं को इस समय किसी फिल्मी अभिनेता से कम नहीं आँक रहे थे ।मंच की ओर एक उचटती सी दृष्टि डाल उन्होंने नाश्ता करना शुरू कर दिया ।गर्मा-गर्म पूरी और कचौड़ी की महक पूरे सभागार में उड़ रही थी। देर से पहुंचे ,कुछ लोग गर्दन मोड़-मोड़ कर ललचाई दृष्टि से पीछे भी देख रहे थे ।संचालक महोदय ने अध्यक्ष जी से अनुमति लेकर दीपक आलोकित करवा…
बड़ी सी बिंदी लगाए.. किसी कवयित्री को वंदना के लिए आमंत्रित किया। पूरे सोलह सिंगार से सुसज्जित नई- नवेली कवयित्री ने सरस्वती वंदना के लिए माइक संभाला और किसी आम मोहल्ले के कीर्तन के किसी भजन की धुन पर बेसुरी सी… मैया-मैया की ताल पर गीत प्रस्तुत किया
…….वाह-वाह के उद्घोष से सरस्वती वंदना की समाप्ति हुई ही थी कि संचालक महोदय ने सभी मंचासीन का स्वागत प्रारंभ कर दिया। फूल मालाओं, शॉल ,नारियल,बंद लिफाफों और स्मृति चिन्हों से सुसज्जित सभी श्रेष्ठ प्रबुद्ध अतिथियों की तस्वीरें लेने में पूरी दोपहर गुज़र चुकी थी और पहला कार्यक्रम जो नए उभरते कवियों की प्रस्तुतियों के लिए रखा गया था वह समयाभाव में आगे के सत्र के लिए स्थगित हो गया। बस मात्र सभी की यशोगाथा से परिपूर्ण परिचय …पढ़ने के उपरांत स्वागत-भाषणों और बीच-बीच में संचालक की शे’रो-शायरी, इधर-उधर से उड़ाई कविताओं की पंक्तियों से परिपूर्ण संचालन… निर्बाध गति से चलता रहा।
यह सिलसिला चल ही रहा था कि अपराह्न भोजनावकाश की घोषणा कर दी गई थी ।लोग सजे मेजों की ओर यौं भागे.. मानो रेल छूटने को हो।हर किसी को जल्दबाज़ी…
बेचारे मंचासीन मुंह ताकते रह गए। अंततोगत्वा उन्हें उन्हीं के स्थान पर बिठाकर होटल वालों से कह कर वहीं पर भोजन परोसने का आर्डर दिया गया ।
अब तक खाना खा चुके कई अतिथि- गण यह कहकर विदा ले चुके थे कि उन्हें एक और कार्यक्रम में भी पहुंचना है ।
कुछ कवि बस पुनः अपने काव्यपाठ की प्रतीक्षा में कुर्सियों पर बैठे- बैठे झपकियां ले रहे थे ।
कवि सम्मेलन प्रारंभ हुआ शुरू- शुरू में कुछ नवागंतुको को पढ़वाया गया।इसी बीच में नेताजी बार-बार घड़ी देखतेऔर उकता कर संचालक से बोले —-अरे मेरेरेरे भाई..पहहहह…ले बाहर वालों को पढ़वाववववओ.. हम भी उन्हें सुने..उन्हें सुनने का अवसर कहाँ मिलता है… फिर हमें मुख्यमंत्री जी की मीटिंग में भी जाना है..
सभी कवि काव्य पाठ के लिए बनारस से आए कवि की जय- जयकार कर अपनी-अपनी गोली फिट करने की जुगत में थे कि उन्हें भी बनारस जाने का मौका मिल सके और वह संचालक महोदय से उन्हें आमंत्रित करने की गुहार में लगे थे।
अभी मात्र पाँच-छः नये-नये आत्म मुग्ध कवि ही पढ़ पाए थे की बनारस के विशेष कवि को आमंत्रित कर लिया गया। पूरा हॉल तालियों की गूँज से गुँजित हो उठा। दो-एक मुक्तकों से प्रारंभ कर उन्होंने एक गीत फिर कुछ दोहे कुछ शे’र ..फिर एक गीत और फिर एक ग़ज़ल प्रस्तुत की …और फिर ग़ज़लों का ऐसा दौर चला कि चलता ही चला गया और रात के आठ बज गये थे।
संचालक महोदय भी अपनी गोटी बिठाने को प्रयत्नशील से.. हर ग़ज़ल और हर शे’र के बीच और बाद में… वाह वाह वाह कहते न अघाते ।
इसी सुना-सुनी में आधा घंटा और निकल गया। बाकी शहरों से पधारे कवियों के सब्र का बांध टूटने ही वाला था ,जब संचालक महोदय के एक वाक्य ने चलती अग्नि पर मानों घृत की आहुति दे , पूरे प्रोग्राम को स्वाहा कर दिया संचालक महोदय के यह कहते हैं कि इतने श्रेष्ठतम,,, इतने वरिष्ठ ,,,इतने प्रखर साहित्यकार को सुनने के बाद अब किसी को क्या पढ़वाना !!! यह तो उनकी तौहीन होगी और अध्यक्ष, आयोजक और बिना मुख्य अतिथि की अनुमति लिए.. उनका वह उद्घोष..सबको लाल-पीला कर गया ।
पहली पंक्ति में बैठे बिजनौर से पधारे एक नामचीन शायर बोले —अजी हम क्या यहां ख़ाक़ छानने आए थे! इतनी बेइज्ज़ती! ऐसी रुसवाई… तौबा! तौबा! अदब के भी कईं उसूल होतें हैं.. कहते कहते…वह अपनी कुर्सी से उठ खड़े हुए थे.. उनकी छींटाकशी ज़ारी थी और उनके साथ सुर से सुर मिलाकर बाहर से आये अन्य कवि भी ऊँची आवाज़ में उनका साथ देने लगे। मंचासीन हतप्रभ थे ! बेचारे मुख्य अतिथि रुपी नेता की हकलाहट तो देखते ही बनती थी.. अरे भई हम्ममममम भी तो कुछ्छछछछछ कहेंगेगेगे।
इधर अध्यक्षता कर रहे ताड़ वृक्ष रूपी कवि बोले– अरे भई अध्यक्षता के नियम भी सीखने पड़ते हैं संचालक को… यह कैसा समापन है? न हमसे पूछा न.. पढ़वाया ! क्या यही अपमान करने को हमें सात घंटे तक बिठाये रखा.. तब तक देवबंद से आए एक कवि ने संचालक का कुर्ता पकड़ा यह क्या भद्दा मजा़क है भई ? हम अपना किराया-भाड़ा खर्च करके यहां क्या पूरी-कचौड़ी ही खाने आए थे इतना घोर अपमान!!!
तब तक किसी और शहर से आए कंकाल से भी पतले कवि ने बनारस से आए वरिष्ठ कवि को गुस्से से देखा और बोला…. साहब आप काहे को मंच पर इतने घंटो तक अपना काव्य- रस झाड़ते रहे? क्या आपको दिख नहीं रहा था कि हम लोग भी काव्य पाठ के लिये ही आये हैं।
बनारसी बाबू ने अपने तेवर दिखाते हुए कहा, “सीमा में रहकर बात कीजिए क्या आप नहीं जानते कि आप किस से बात कर रहे हैं !”
बात तू-तड़ाक से चलती हुई गिरेबान पर ..और फिर साधारण गालियों से प्रारंभ होकर समाप्त होते-होते…सभी की काव्यमयी सुसंस्कृत भाषा… निहायत गुंडागर्दी वाली भाषा पर उतर आई थी।
इसी बीच में संभ्रांत अतिथि और कुछ वरिष्ठ कवि चुपके से खाने की मेज पर लपके और पांच सात मिनट में भोजन करके सटक लिये थे।
होटल वाले आँखें फाड़े ,दबी-दबी मुस्कान से इस अशोभनीय कवि-सम्मेलन के चटखारे ले रहे थे।आने वाली विकट,नाजु़क स्थिति की कल्पना कर संचालक महोदय न जाने कब के घटनास्थल से रफू़चक्कर हो गये। इसी बीच बड़ी-बड़ी मूछों वाले पहलवाननुमा कवि ने एक दाल से भरा डोंगा उछाला और बोला —क्या हमारी दाल के जितनी औकात है यह अपने को समझते क्या है? एक बार हमारे शहर में आएँ ..इन्हें दिखाएंगे कि कवि सम्मेलन क्या होता है! हमने तो,मित्रता निभाने की ख़ातिर, विदेश से मंच पर पढ़ने के निमंत्रण को भी अस्वीकार कर , यहां के लिए स्वीकृति , क्या इसलिए दी थी कि सात घंटे बैठकर बेकार की बकवास सुनते रहे। पूरे हॉल में गिरेबान पकड़ने से लेकर गाली-गलौज और मारपीट की नौबत चरम पर थी… जब कुछ महिलाओं ने भाई साहब.. बस कीजिए…कहते हुए ,भद्र सी वाणी में उन्हें समझाने का प्रयत्न किया। किंतु कोई भी कलयुगी मेनका, रंभा ,उर्वशी सी रूपसी या अप्सरा अपने शब्दों के अमोघ शस्त्रों से किसी कवि ऋषि के क्रोध की तपस्या को भंग करने में सफल न हुई और लज्जित होती अपने साड़ी के पल्लू को संभालती, मुंह बनाती लौट गई।
बेचारे नेताजी पूरे इक्कीस हज़ार की बलिवेदी पर शहीद होते बड़- बड़ाते अपने दो चमचों के साथ प्रस्थान कर चुके थे और रुआँसे से आयोजक कवि अपनी धर्मपत्नी और बच्चों के साथ एक कोने में खड़े अपनी पुस्तक ‘अरमानों की जलती चिता ‘ के अर्पण का ऐसा वीभत्स तर्पण देख बेहोश हो गिर पड़े थे।
डॉली डबराल