पुस्तक समीक्षासाहित्य

जूतियां सर पर रखी हैं पांव में दस्तार है

जनाब कृष्ण कुमार नाज़ साहब की किताब नई हवाएं की समीक्षा

जनाब कृष्णकुमार ‘नाज़’ साहब किसी परिचय के मोहताज नहीं है। जनाब कृष्ण बिहारी नूर साहब के प्रिय शार्गिदों में एक नाज़ साहब मुरादाबाद में रह रहे हैं। आज उनकी ग़ज़लों की एक अनूठी किताब ‘नई हवाएँ’ की जानकारी और उसके चुनिंदा अशआर आप तक पहुंचा रहे हैं। बाज़ार में उपलब्ध ग़ज़लों की सैकड़ों किताबों में से ये किताब इसलिए अनूठी है कि इसमें उर्दू ग़ज़ल की 18 अत्यधिक प्रचलित बहरों पर कही 120 ग़ज़लों का संकलन किया गया है। हर बहर के अरकान और उस बहर में कही ग़ज़लें एक साथ संकलित हैं। ग़ज़ल सीखने वालों के लिए इससे बेहतर किताब शायद ही कोई हो। इस किताब को ‘किताबगंज प्रकाशन’ गंगापुर सिटी राजस्थान ने प्रकाशित किया है।

आदमी की भूख मकड़ी की तरह है दोस्तो

और जीवन उसके जाले की तरह उलझा हुआ

*

जिसकी ख़ातिर आदमी कर लेता है ख़ुद को फ़ना

कितना मुश्किल है बचा पाना उसी पहचान को

*

ज़हन से उलझा हुआ है मुद्दतों से ये सवाल

आदमी सामान है या आदमी बाज़ार है

इस तरक़्क़ी पर बहुत इतरा रहे हैं आज हम

जूतियां सर पर रखी हैं पाँव में दस्तार है

*

मैंने दुश्मन को भी ख़ुश होकर लगाया है गले

दुश्मनी अपनी जगह, इंसानियत अपनी जगह

मैं परिंदे की तरह मजबूर भी हूँ, क़ैद भी

हां मेरी ज़हनी उड़ानों की सिफ़त अपनी जगह

*

थी कभी अनमोल, लेकिन अब तेरे जाने के बाद

ज़िंदगी फ़ुटपाथ पर बिखरा हुआ सामान है

*

सर झुकाने ही नहीं देता मुझे मेरा ग़ुरूर

इक बुराई ने दबा लीं मेरी सब अच्छाइयाँ

कुछ दिनों तक तो अकेलापन बहुत अखरा मगर

धीरे-धीरे लुत्फ़ देने लग गई तनहाइयाँ

*

ये सुख भी क्षणिक हैं, ये दुख भी हैं वक़्ती

ये किसके हुए हैं, न तेरे, न मेरे

समाजशास्त्र, उर्दू और हिंदी विषयों में एम.ए.करने के बाद नाज़ साहब ने बी.एड. की परीक्षा पास की और फिर पी-एच.डी. की डिग्री भी हासिल की। मृदुभाषी नाज़ साहब विलक्षण प्रतिभा के धनी और जुझारू व्यक्तित्व के स्वामी हैं। माँ सरस्वती की उन पर विशेष कृपा रही है। उन्होंने न सिर्फ़ ग़ज़ल लेखन में महारत हासिल की, बल्कि गीत, दोहा, कविता, नाटक तथा निबंध लेखन में भी कौशल दिखाया है। उनकी ये आठ किताबें इस समय बाजार में उपलब्ध हैं- ‘ इक्कीसवीं सदी के लिए’ (ग़ज़ल-संग्रह), ‘गुनगुनी धूप’ (ग़ज़ल-संग्रह), ‘मन की सतह पर’ (गीत-संग्रह), ‘जीवन के परिदृश्य’ (नाटक-संग्रह), ‘हिंदी ग़ज़ल और कृष्णबिहारी नूर’, ‘नई हवाएँ’ (ग़ज़ल-संग्रह) और ग़ज़ल के विद्यार्थियों को उरूज़ आसानी से समझने के लिए बेहतरीन किताब ‘व्याकरण ग़ज़ल का’।

नाज़ साहब के जीवन की कहानी हमें संघर्ष कर अपने सपनों को साकार करने की प्रेरणा देती है। उन्होंने जीवन में कभी हार नहीं मानी, विपरीत परिस्थितियों के समक्ष घुटने नहीं टेके। ‘अमर उजाला’ अखबार में उन्होंने सन 1989 ‘प्रूफ़ रीडर’ के पद से नौकरी का आरम्भ किया और तीन वर्ष बाद ही उनका तबादला संपादकीय विभाग में हो गया। सन 1995 में उन्हें ‘गन्ना विकास विभाग, मुरादाबाद में उर्दू अनुवादक के पद की सरकारी नौकरी मिल गई, लेकिन ‘अमर उजाला’ वालों ने उनसे वहीं काम करते रहने की गुज़ारिश की, लिहाज़ा वो दोनों संस्थाओं में तीन सालों तक साथ-साथ नौकरी करते रहे। दोनों जगह काम के बोझ के चलते उन्हें स्पोंडिलाइटिस व मोतियाबिंद भी हो गया, लेकिन मुरादाबाद में अपना ख़ुद का एक घर होने की चाहत ने इन तकलीफ़ों को उन पर हावी नहीं होने दिया। आख़िर अगस्त 1998 में उन्होंने ‘अमर उजाला’ छोड़ दिया। 31 जनवरी 2021 को वो गन्ना विकास विभाग में लेखाकार पद से सेवानिवृत्त हुए। अब अपना पूरा समय वो अपने द्वारा स्थापित ‘गुंजन प्रकाशन’ और लेखन-पठन को देते हैं।

इस संघर्ष में उनके बचपन ने सीधा प्रौढ़ावस्था में कब क़दम रख दिया, ये पता ही नहीं चला। नाज़ साहब पर केन्द्रित ‘निर्झरिणी’ पत्रिका के अंक-12 में वो अपने बारे में लिखते हैं कि ‘युवावस्था तक अभावों ने अपने बाहुपाश में जकड़े रखा।लेकिन ईश्वर हमेशा मेरी उंगली थामे रहा, उसने मुझे कभी निराश नहीं किया। तमाम दिक़्क़तों के बावजूद कभी मेरा कोई काम नहीं रुका। मैंने कभी दौलतमंद दोस्त नहीं बनाए, यह मेरा हीनताबोध भी हो सकता है। ज़िंदगी के सफ़र में मुझे बहुत अच्छे-अच्छे लोग मिले। आज जब अतीत के झरोखों में झांकता हूं, तो मेरी आंखें भीग जाती हैं। लेकिन, तभी मेरा आत्मबल मेरा कंधा थपथपाकर मेरा हौसला बढ़ाता है और कहता है- शाबाश, तुम्हारी मेहनत रंग लाई; और चलो, और चलो, चलते रहो, परिश्रम ही तुम्हारी पूजा है।
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आइये अंत में उनके इन चंद चुनिंदा शेरों के साथ अपनी बात समाप्त करते हैं :
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चांद को पाने की कोशिश करते-करते।

जुगनू क़िस्मत का हिस्सा हो जाता है।।
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मैं ठहरा सदियों से प्यासा रेगिस्तान।
तू तो नदी है, तुझको क्या हो जाता है।।
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हाथ सेंकती हैं ख़्वाहिशें।
ज़िंदगी है या अलाव है।।
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ज़िंदगी ये बता नाम क्या दूं तुझे।
आशना, अजनबी, राहज़न, राहबर।।
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जहां शरीर से लेकर ज़मीर तक बिक जाय।
नई हवाओं ने छोड़ा वहां पे ले जाकर।।

ये किताब अमेजन पर नहीं है इसलिए जो इसे खरीदना चाहें  वो किताबगंज के प्रकाशक श्री प्रमोद सागर से 8750660105 पर संपर्क करें। आप नाज़ साहब से 9927376877 अथवा 9808315744 पर मोबाइल से संपर्क कर उन्हें इन शानदार ग़ज़लों के लिए बधाई दे सकते हैं।

साभार नीरज गोस्वामी

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