Newsपुस्तक समीक्षासाहित्य

बेबाकी से सच्चाई को बयां करता है ग़ज़ल संग्रह ‘भोंपू सा चिल्लाते रहिए’

दुष्यंत कुमार की परंपरा के शायर रामअवध विश्वकर्मा

साहित्य समाज का दर्पण है और यदि कोई उस सच से वास्ता नहीं रखता या सच नहीं कहता और लिखता या उसपे अमल नहीं करता तो उससे किसी भी तरह की उम्मीद रखना बेमानी है। कवि, शायर और लेखक बनने की सबसे बड़ी शर्त ही हस्सास या संवेदनशील होना है। जो संवेदनशील नहीं है, वह दूसरे की पीड़ा से वाकिफ हो ही नहीं सकता। बड़े भाई रामअवध विश्वकर्मा जी न केवल हस्सास हैं, बल्कि वह सच्चाई को उकेरना भी जानते हैं। विश्वकर्मा जी ने जब अपना ग़ज़ल संग्रह ‘भोंपू सा चिल्लाते रहिए ‘ मुझे भेजा तो शीर्षक देखकर ही मुझे यह लग गया कि वह झूठ के कितने खिलाफ हैं और सच को बेझिझक बोलना और कहना जानते हैं। किताब पढ़कर देखा तो उनकी शायरी का कायल हो गया। उनकी शायरी मुझे दुष्यंत कुमार जी के काफी करीब मालूम हुई।
इसी किताब के दो शेर देखिएः

जाता है देश भाड़ में तो जाए भाड़ में।
नेता लगे हैं सबके सब अपनी जुगाड़ में।।

ऐसे तमाम लोग अब सत्ता में आ गए।
संगीन जुर्म में जो कभी थे तिहाड़ में।।

यही कुछ तो सब राजनीतिक दल कर रहे हैं, जो अच्छे लोगों के बजाय चुनाव में ताकतवर को टिकट थमा दे रहे हैं।

सत्तारूढ़ दल के आगे विपक्ष की आवाज नक्कारखाने में तूती की आवाज जैसी साबित हो रही है। सत्तारूढ़ दल की इसी मनमानी को देखकर वह कहते हैंः

यूं ही गाल बजाते रहिए।
भोंपू सा चिल्लाते रहिए।।

जिनको राह के रोड़े समझें।
उनको रोज हटाते रहिए।।
– – – – – – – – – – – – – – – – – – –

वो किस तरह से मुकरते जुबान दे बैठे।
तभी कचहरी में झूठा बयान दे बैठे।।

तमाम दाग थे दामन में जिनके उनको ही।
टिकट चुनाव का आलाकमान दे बैठे।।
– – – – – – – – – – – – – – – – – – – – –
सत्ता में आने से पहले तमाम दल कहते कुछ हैं और सत्ता में आने के बाद करते कुछ हैं। इसी को दर्शाते हुए उनके दो शेर देखिएः

मन में कैसा भ्रम पाले हैं।
अच्छे दिन आने वाले हैं।।

अफसरशाही का ये आलम।
गोरों से बढ़कर काले हैं।।
– – – – – – – – – – – – – – – – – – – – –

ऐसी परिस्थिति में शायर कई बार निराश भी हो जाता है और बोल पड़ता हैः

मुनासिब मिलेगा अगर दाम दिल का।
तो कर लूंगा सौदा मैं नाकाम दिल का।।

तुम्हारा शहर तो बुतों का शहर है।
तुम्हारे शहर में क्या काम दिल का।।
– – – – – – – – – – – – – – – – –
सरकार की मनमानी पर तीन और शे’र देखिएः

सरकार के बजट ने ऐसा बजट बिगाड़ा।
हम हो गए कबाड़ी घर का हुआ कबाड़ा।।

वादे किए थे ढेरों अब क्यों मुकर रहे हो।
गिनती को भूलकर तुम पढ़ने लगे पहाड़ा।।

रोयें कहां पे जाकर दुखड़ा सुनाएं किसको।
पैरों पे हमने अपने मारा है खुद कुल्हाड़ा।।
– – – – – – – – – – – – – – – – – – – – –
बिना सोचे-समझे किए नोटबंदी के फैसले पर भी विश्वकर्मा जी की कलम खामोश नहीं रही और वह कह बैठेः

करके वादा कि वो लाएगा उजाला इक दिन।
छीन लेगा वो सभी का ही निवाला इक दिन।।

नोटबंदी का असर यूं ही रहा जो कायम।
डर है लग जाए न दुकान में ताला इक दिन।।
– – – – – – – – – – – – – – – – — – – – – – – – –
वादे तमाम करके भी मौसम मुकर गया।
आई नहीं बहार जमाना गुजर गया।।

आया इलाज करने परिंदे का डाक्टर।
हमदर्द बनके आया मगर पर कतर गया।।
– – – – – – – – – – — – – – – – – – – –
बड़े थे नोट जितने भी हुए बेकार झटके में।
गिरा है औंधे मुंह इस देश का व्यापार झटके में।।

हुआ कुछ भी नहीं लेकिन ढिंढोरा हर तरफ पीटा।
गिरा दी हमने काले धन की ये दीवार झटके में।।
– – – – – – – – – – – – – – – – – – – – –
शायर के मन में झूठ के प्रति कितना गुस्सा है, उसका इजहार भी उन्होंने अपने तमाम शेरों में किया है। पेश है कुछ शे’रः

तुम्हारी बात झूठी है तुम्हारा काम झूठा है।
दिखाकर ख्वाब अच्छे तुमने सारा देश लूटा है।।

कहीं तो खोट है साहब तुम्हारी इस व्यवस्था में।
तुम्हारे राज में हर रोज ही कानून टूटा है।।
– – – – – – – – – – – – – – – – – – – – – – – – –
ओर न छोर जिस कहानी का।
वो फसाना है जिंदगानी का।।

हो गए बदतमीज रहबर अब।
दौर आया है बदजुबानी का।।
– – – – – – – – – – – – – – – – – – –
अपनी कौम के प्रति भी विश्वकर्मा जी संवेदनशील हैं तभी तो कहते हैंः

सफाई शहर की करना हमारा काम है बाबू।
हजारों साल से इक खास अपना नाम है बाबू।।

यहां तो जिंदगी में त्रासदी ही त्रासदी है बस।
तुम्हारी ही सियासत का तो ये परिणाम है बाबू।।
– – – – – – – – – – – – – – – – – – – – – – –

धर्म और मजहब के नाम पर देश में क्या कुछ हो रहा है, उसको भी वह अपनी शायरी का विषय बनाने से नहीं चूकतेः

ताकत को सरेआम दिखाने की होड़ है।
बच्चों को सुपरमैन बनाने की होड़ है।।

अंधे हैं यहां पर सभी मजहब के नाम पर।
मजहब के लिए खून बहाने की होड़ है।।
– – – – – – – – – – – – – – – – – – – – –
कहते थे ताल ठोककर मूंछें मरोड़कर।
लाएंगे आसमान से तारे वो तोड़कर।।

अब क्या बताएं दोस्तो महंगाई पी गई।
सारा लहू हमारे बदन का निचोड़कर।।

कैसा अजीब शख्स है वो फिर से सो गया।
जिसको जगाया था अभी हमने झिंझोड़कर।।
– – – – – – – – – – – – – – – – – – – – –
विश्वकर्मा जी अपनी जिम्मेदारी के प्रति किस कदर हस्सास हैं, ये उनकी शायरी में परिलक्षित होता है। ऐसे ही कुछ और शे’र देखिएः

तुम्हारा काफिला जब भी शहर से निकला था।
लगा था जाम उधर ही जिधर से निकला था।।

वो बम धमाके में आतंक का शिकार हुआ।
खिलौना बेटे का लेने जो घर से निकला था।।
– – – – – – – – – – – – – – – – – – – – – – – –
भय का वातावरण बना है मन में सिर्फ निराशा है।
दरवाजे खिड़कियां बंद हैं हर घर में सन्नाटा है।।

जिस सूरज पर किया भरोसा उसका भी तो पता नहीं।
बादल का आतंक बहुत है चारों ओर कुहासा है।।
– – – – – – – – – – – – – – – – – – – – – – – – – – –
दोस्तो अब ये हुनर हमको दिखाना होगा।
मांगकर हमको नहीं छीन के खाना होगा।।

फायदा क्या है अगर तुझसे हकीकत पूछूं।
फिर वही झूठ वही तेरा बहाना होगा।।
– – – – – – – – – – – – – – – – – – –
हम तो पूछेंगे कई बार बताओ तो सही।
चाहती क्या है ये सरकार बताओ तो सही।।

क्या अमीरों की तरह हमको मिलेगा भोजन।
ऐ अमीरों के तरफदार बताओ तो सही।।

रूप धरकर विषधर निकले।
बाबा चेले तस्कर निकले।।

राष्ट्रभक्ति का पाठ पढ़ाने।
चीते भालू बंदर निकले।।

– – – – – – – – – – – – – – – – – – – –
विश्वकर्मा जी की कलम जहां समाज की तल्ख हकीकत पर चली, वहीं ग़ज़ल की नजा़कत से भी उन्होंने रूबरू करायाः

थी जैसी वही हू-ब-हू कीजिए।
फटी जिंदगी को रफू कीजिए।।

हैं शायर तो नाजुक ग़ज़ल से जरा।
बड़े प्यार से गुफ्तगू कीजिए।।
– – – – – – — – – – – – – – – – – – – – – –
वर्तमान में ग्वालियर में रह रहे जिला बस्ती (उत्तर प्रदेश) निवासी रामआवध विश्वकर्मा जी को बेबाक शायरी के लिए बहुत-बहुत बधाई।
——————————–
ग़ज़ल संग्रहः भोंपू सा चिल्लाते रहिए
ग़ज़लकारः रामअवध विश्वकर्मा
प्रकाशकः अयन प्रकाशन, नई दिल्ली
पृष्ठः 122
प्रथम संस्करणः वर्ष 2019
मूल्यः 250 रुपये।
मोबाइलः 9479328400
7974553370

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button