देश-विदेशसंस्मरण

ये दिल्ली है…मुस्तफ़ा अतातुर्क कमाल मार्ग

साहित्यकारों का दिवालियापन

राजधानी दिल्ली की एक सड़क का नाम है – *मुस्तफ़ा अतातुर्क कमाल मार्ग* । हमारा उधर जाना होता था । बाक़ी दिल्ली वालों की तरह हम भी इस नाम को पढ़ते हुए निकलते थे।

आज फ़ेसबुक पर हिन्दी साहित्य के दो स्वनामी लेखकों के सामूहिक दस्तख़त से एक अपील आयी है । गलती से हम पूरा सुलेख पढ़ गये , मज़मून का लब्बोलुआब यह रहा कि इस सड़क का नाम बदला जाय । वजह बताया ग़या है कि यह “ तुष्टीकरण “ की नीति पर नाम रखा गया है क्यों कि मुस्तफ़ा कमाल कभी भारत आया ही नहीं , इस सनसनी पूर्ण खोजी मज़मून के समर्थन में गिरोही ढक्कन से बाहर आ गये और यहाँ तक माँग करने लगे कि पहले यह बताया जाय कि इस सड़क का , यह नाम किसने रखा ? विकल्प के रूप में एक संस्कृत के विद्वान् का नाम भी उभारा गया ।

इस तरह के अनगिनत विषय उठते रहते हैं कोई नई बात नहीं है , लेकिन साहित्य से जुड़े नाम इस तरह के सवाल उठाते हैं तो इसकी राख साहित्य की उस भाषा और उन साहित्यकारों की रचना को भी लपेटती है , वो भी “ हिन्दी “ का साहित्यकार ? जब हिन्दी ख़ुद संकुचित नहीं है , दुनिया की हर भाषा को अपनी गोद में लिये बेख़ौफ़ , बेलौस दौड़ रही है तो उसका रचनाकार इतना बौना कैसे हो गया ? क्यों की हर रचना एक सोच से उपजती है और सोच भाषा से ही व्यक्त होता है ।

मुस्तफ़ा अतातुर्क तुर्की का ऐसा शासक रहा है जिसने अपने मुल्क को कट्टर मज़हबी जकड़न से निकाल कर अपने देश को धर्म निरपेक्ष बनाया ।

अंधविश्वास और पंगु आस्था से समाज को निकाल कर विज्ञान और उद्योग की तरफ़ चलाया ।

हिन्दी का साहित्यकार (?) अतातुर्क को मिटानेका कारण बता रहा है , अतातुर्क कमाल कभी भारत आया ही नहीं ।

महात्मा गाँधी अमरीका समेत अनगिनत देशों में नहीं गये लेकिन उनकी असंख्य मूर्तियाँ उन देशों में लगी हैं , मुंशी प्रेमचंद , चन्द्रधर शर्मा गुलेरी , देवरिया नहीं गये हैं , देवरिया के बच्चों से कहिये इन्हें ख़ारिज कर दो । साहित्यकार जी ! व्यक्ति का कहीं पहुँचना और व्यक्तित्व के पहुचने में फ़र्क़ होता है व्यक्तित्व विचार से बनता है ।

अतातुर्क की सोच , उनका विचार सुनिये अतातुर्क कमाल का कहना है –

_*”मेरा कोई धर्म नहीं है, और कभी-कभी मैं समुद्र के तल पर सभी धर्मों की कामना करता हूं। वह एक कमजोर शासक है जिसे अपनी सरकार को बनाए रखने के लिए धर्म की आवश्यकता है; ऐसा लगता है जैसे वह अपने लोगों को जाल में फंसा लेगा। मेरे लोग जा रहे हैं लोकतंत्र के सिद्धांतों, सत्य के आदेशों और विज्ञान की शिक्षाओं को सीखने के लिए। अंधविश्वास दूर होना चाहिए। उन्हें अपनी इच्छानुसार पूजा करने दें; प्रत्येक व्यक्ति अपने विवेक का पालन कर सकता है, बशर्ते यह विवेकपूर्ण कारण में हस्तक्षेप न करे या उसे स्वतंत्रता के विरुद्ध न करे। “*_

यह मुस्तफ़ा अतातुर्क कमाल बीसवीं सदी के दस बड़े नेताओं के नाम में एक है ।

साभारः विष्णु तिवारी

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