हमारे अपने थे पगड़ी उछालने वाले
शायरा डा. नलिनी विभा नाज़ली के ग़ज़ल संग्रह शाम के धुंधलके की समीक्षा

उर्दू अदब में डॉ नलिनी विभा ‘नाज़ली’ साहिबा किसी तअर्रुफ़ की मोहताज नहीं हैं वो अदब के हवाले से एक जाना पहचाना नाम हैं *जो दौरे-हाज़िर की शाइरात* में अपना एक ख़ास मुक़ाम रखती हैं।
मुनफ़रिद लबो-लहजे और उम्दा ज़ुबान-ओ बयान की शायरा होने के साथ -साथ साफ़ -ओ शफ़्फ़ाफ़ शख़्सियत की मालिक हैं जो दिल में होता है वही अपने अशआर में पिरोती हैं कहने का मतलब ये कि उनके क़ौल-ओ फ़ेअल में कोई तज़ाद( विरोधाभास ) नहीं है।
उनकी ग़ज़लों का ताज़ातरीन मजमुआ “धुंधलके शाम के” पढ़ने का शरफ़ हासिल हुआ जिसने मुझे बहुत मुतास्सिर किया , एहसास -ओ जज़्बात से लबरेज़ उनके अशआर उनकी हस्सास तबीअत से रुशनास कराते हैं उनके अशआर में सादगी , संजीदगी ,सलासत, नफ़ासत ,नज़ाक़त , रवानी ,मानवियत यानि वो सब कुछ है जो पढ़ने वाले को मुतास्सिर ( प्रभावित) करने के लिए ज़रूरी है पढ़ने वाले को ऐसा लगता है जैसे नाज़ली साहिबा ने हमारे दिल की बात कही है , उनकी ग़ज़लों में अल्फ़ाज़ और उनकी तरतीब इस क़दर सादा और आम फ़हम है कि उर्दू ज़ुबान से नावाक़िफ़ शख़्स को भी अशआर का मतलब समझने में दुश्वारी पेश नहीं आती ।
एक कहावत प्रचलित है कि “शायर जैसे जैसे उम्रदराज़ होता है उसकी शायरी उतनी ही जवान होती जाती है” और ये कहावत मोहतरमा नाज़ली साहिबा पर बिल्कुल खरी उतरती है।
उनके इस मजमुए में बेश्तर अशआर ऐसे हैं जिनमें सामाजिक बन्धनों और ज़िन्दगी की तल्ख़ हक़ीक़तों जिनसे आम इंसान को रोज़ाना गुज़रना पड़ता है जैसे मज़ामीन को नज़्म किया गया है जिनसे पाठक सीधे तौर पर जुड़ जाता है और यही ख़ूबी उनकी कामयाबी का राज़ है ।
पहली ग़ज़ल का मतला ही किताब का उन्वान है
अपनी पलकों पे मिरे ग़म के गुहर ढोते हैं
ये धुँधलके मिरी शामों के बहुत रोते हैं।
इस मजमुए में उनकी कुल 51 ग़ज़लें हैं जो पाठकों की सुविधा के लिए उर्दू और हिन्दी लिपि दोनों में छापी गयी हैं जिन्हें “अमृत प्रकाशन दिल्ली” ने शाया किया है जिसमें हर ग़ज़ल 5 बेहतरीन और मैयारी अशआर पर मुश्तमिल है
मजमुए का आवरण और शीर्षक भी अपने रंग रूप से आकर्षित करता है । इस मजमुए से पहले उनका दीवान और 13 दीगर मजमुए शाया हो चुके हैं जिनकी अदबी हलकों में भरपूर पज़ीराई और सराहना हो चुकी है कुल मिलाकर ये उनका 15 वां मजमुआ है मैं इस मजमुए की इशाअत पर उन्हें दिली मुबारकबाद पेश करते हुए उनके कुछ बेहतरीन अशआर अपनी बात की ताईद में पेश करना ज़रूरी समझता हूँ , मुलाहिज़ा फ़रमाइये।
जो होते ग़ैर तो हमको कोई मलाल न था
हमारे अपने थे पगड़ी उछालने वाले
क़लम दवात थे , काग़ज़ थे और तन्हाई
थे ‘नाज़ली’ को यही सब संभालने वाले
जब जब भी बेटियाँ लुटीं , मजबूर वालिदैन
इंसाफ़ का खुले कभी दर , देखते रहे
मुझको मरने से पहले मेरे लाल
इक निवाला तुझे खिलाना है
‘नाज़ली’ को आज तक भी याद है
एक बच्ची जिसकी थीं दो चोटियां
उसमें बच्ची है एक भोली सी
झूठ को सच जो मान जाती है।
ऐसे कितने ही ख़ूबसूरत अशआर इस मजमुए में हैं।मुझे तवक़्क़ो है कि ‘धुँधलके शामों के’ सामईन को पसंद आएगा और उन्हे मुतास्सिर करेगा। मेरी दुआएं और नेक ख़्वाहिशात ‘नाज़ली’ साहिबा के साथ हैं। दिली मुबारकबाद
रवि केड़िया ‘आदिल’
मुंबई