इतना सन्नाटा क्यों है भाई! बड़के और स्वनामधन्य साहित्यकारों को सूंघा सांप, साधी चुप्पी
- उत्तराखंड साहित्य गौरव पुरस्कारों में पारदर्शिता के लिए हो मंथन, आरटीआई में मांगेंगे सूचना

लक्ष्मी प्रसाद बडोनी
देहरादून: उत्तराखंड भाषा संस्थान की ओर से हाल ही में वितरित साहित्य गौरव पुरस्कारों को लेकर आ रही प्रतिक्रियाओं से पुरस्कार की कतार में खड़े कुछ ‘बड़के’ और स्वनामधन्य साहित्यकारों को सांप सूंघ गया है। चुप्पी इतना गहरी है कि वह न तो ग़लत बातों का विरोध कर रहे हैं और न वह इस व्यवस्था में सुधार के लिए सुझाव देने को ही तैयार हैं। वह शायद इस उम्मीद में हैं कि आज नहीं तो कल ‘जुगाड़’ हो ही जाएगा। हालांकि कई लोग मामले में आरटीआई मांगने और सही जगह तक बात पहुंचाने के लिए आगे आए हैं, जिससे भविष्य में पुरस्कारों में पारदर्शिता की उम्मीद बंधी है।
लोकतंत्र में अपनी बात कहने का सबको अधिकार है। ग़लत बातों का विरोध हर हाल में होना चाहिए। खास तौर पर साहित्य जगत में सन्नाटे की स्थिति किसी के हित में नहीं है। प्रतिक्रियाएं नहीं होंगी, तो यह बात बेमानी हो जाएगी कि साहित्य समाज का दर्पण है। हालांकि अच्छे साहित्यकार पुरस्कार के मोहताज नहीं होते, लेकिन अच्छे साहित्य और साहित्यकारों को पुरस्कृत किया जाना ही चाहिए, ताकि पुरस्कार की गरिमा बढ़े।
वरिष्ठ पत्रकार और नवगीत के चर्चित चेहरे असीम शुक्ल का मानना है कि पुरस्कारों पर विवाद चिंता का विषय है। ख़ुद पहाड़ के लोग ही यदि पुरस्कार वितरण में घपले का आरोप लगा रहे हैं, तो निश्चित रूप से इस विषय में मंथन की जरूरत है। उन्होंने गढ़वाली साहित्य में अनुवाद की परंपरा शुरू करने करने पर जोर दिय। कहा कि, इससे न केवल गढ़वाली साहित्य का दायरा बढ़ेगा, बल्कि उत्तराखंड में रह रहे मैदान के लोग भी उससे परिचित हो सकेंगे। इससे गढ़वाली साहित्य और समृद्ध हो सकेगा।
वरिष्ठ साहित्यकार रतन सिंह किरमोलिया का कहना है कि अधिकांश साहित्यकार चुप्पी साधे हुए हैं। कोई खुलकर बात रखने को आगे नहीं आ रहा। कम से कम इस मामले में सुझाव तो दिए ही जा सकते हैं, ताकि भविष्य में पुरस्कार रेवड़ियों की तरह न बंटे। कुछ साहित्यकार तो यह सोचकर चुप हैं कि पुरस्कारों की संख्या बढ़ रही है, कभी न कभी नंबर आ ही जाएगा। हालांकि यह स्थिति सही नहीं है। पुरस्कार जितने कम होंगे, उतनी प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी और अच्छा साहित्य सामने आएगा, जो नए लेखकों में भी अच्छी समझ पैदा करेगा। वरिष्ठ साहित्यकार आशा शैली भी इस चुप्पी से खिन्न हैं। उनका कहना है कि पुरस्कारों की गरिमा की खातिर आरटीआई मांगना ज़रूरी है, ताकि ग़लत लोगों का चेहरा बेनकाब हो और ऐसे लोगों का भाषा संस्थान से कब्जा खत्म हो।