
मनुष्य , प्रकृति और जीवन से गहरे स्तर पर जुड़े साहित्यकार श्री माधव नागदा संवेदनशील कवि होने के साथ-साथ प्रगतिशील चेतना युक्त कथाकार , आलोचक , डायरी – लेखक और संपादक भी हैं। इस वैविध्यपूर्ण लेखन से इनके भीतर बैठा कवि रचनात्मक दृष्टि से और अधिक समृद्ध ही हुआ है।
अलावा इसके यह बात भी कोई विशेष महत्व नहीं रखती है कि माधव नागदा का एक मात्र कविता – संग्रह
‘ मैं शब्दों का कुम्भकार’ काफ़ी विलंब से प्रकाश में आया जबकि कहानी – संग्रह , डायरियाँ आदि पहले प्रकाशित हो चुकी थीं।
महत्वपूर्ण बात तो यह है कि माधव नागदा मामूली चीजों को लेकर ग़ैरमामूली कविताएँ रचनेवाले लोकधर्मी साहित्यकार हैं।वे कविता से बेहद प्यार करते हैं। इनकी कविताएँ सीधे दिल से निकलती हैं और दिमाग़ को झंकृत करती हैं। माधव नागदा की काव्य – संवेदना जाग्रत विवेक से सुगठित है।
मनुष्यता की पक्षधर इनकी कविताएँ बेहतर दुनिया का ख़्वाब बुनती हैं। ‘ बचा रहे आपस का प्रेम ‘ कविता में वे सघन छायादार पेड़ को कविता ‘ का प्रतीक बनाते हुए लिखते हैं :
पेड़ ही तो है कविता
इस झुलसाने वाले समय में
पेड़ से इतर
छाँव कहाँ !
सुकून कहाँ !!
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जब पेड़ के पत्ते खड़खड़ाते हैं तब
व्यवस्था के प्रतीक लकड़हारे भयभीत हो उठते हैं ।
सांकेतिक प्रतिरोध का स्वर मुखरित हो उठता है । माधव कहते हैं :
लकड़हारों को
कहाँ सुहाती है कविता
भयभीत करती रहती है उन्हें कविता के पत्तों की खड़खड़ाहट ।
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माधव नागदा की कविताएँ प्रौढ़ और परिपक्व हैं । कविता के प्रयोजन को स्प्ष्ट करते हुए वे कहते हैं :
कवि
रच पाता है कविता
क्यों कि
कामना है उसकी
….मनुष्य में सदा
जगी रहें संवेदनाएँ
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माधव नागदा जी की
कविताओं का धरातल बहुत बड़ा है । इनकी कविताओं में अँधेरे में डूबी ढाणी की सुगना है तो मिट्टी के बर्तन बनाने वाला सवाबा भी है । उपले थेपती मरियल सांवली युवती है तो किसान पेमा काका और मास्टर रामलाल भी हैं। ये पात्र हमारे ज़ेहन में आकर बस जाते हैं। अपनी अपनी व्यथाकथा सुनाते हैं ।
माधव नागदा की ‘ लड़की और नाख़ून ‘ कविता में आई लड़की अपनी रक्षा स्वयं करने की दिशा में अग्रसर है ।
माधव नागदा शहरों की बदलती हुई फ़ित्रत को देख कर हैरान हो जाते हैं । उन्हें लगता है कि अब संवेदनाओं को जीने वाले शहर ‘ पत्थरों के शहर ‘ बन कर रह गए हैं।
इस कवि को अपने जनपद की माटी से गहरा लगाव है । जैसे कुम्हार माटी से बर्तन बनाता है वैसे ही कवि नागदा शब्दों की माटी से कविता के बर्तन बनाते हैं ।
अपनी कविता ‘ माटी का कवि ‘में वे कहते हैं :
कभी कभी
सोचता हूँ
माटी का कवि है सवाबा
और मैं
शब्दों का कुम्भकार
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और अंत में।एक विशेष उल्लेखनीय बात जिसने मुझे बेहद प्रभावित किया,वह है हिंदी भाषा के साथ – साथ बोलीबानी की स्थानीय रंगत , कहन की सहजता और काव्य – रचाव की स्वाभाविकता।
हमें इनकी काव्ययात्रा के अगले पड़ाव की उत्सुकता से प्रतीक्षा है।
– डॉ. रमाकांत शर्मा
94144 10367