लाइब्रेरी से बढ़ी पढ़ने में दिलचस्पी
जीवन की राहें: सत्यपथ से परिचय

मैंने लिखने की शुरुआत तो कर दी थी, लेकिन अभी लेखन में परिपक्वता आना शेष था। इसके लिए पढ़ाई जरूरी है, यह बात मेरी समझ में अच्छे से आ गई थी और इसके लिए मैंने पब्लिक लाइब्रेरी जाना भी शुरू कर दिया था। नगर पालिका की इस लाइब्रेरी में पढ़ने की दो तरह की व्यवस्था थी, पहली पूरी तरह निःशुल्क और दूसरी सालाना फीस वाली। पहली व्यवस्था के तहत लाइब्रेरी में बैठकर हिंदी-अंग्रेजी के सभी अखबार और तकरीबन सभी मासिक व पाक्षिक पत्रिकाएं पढ़ने की सुविधा थी। जबकि, दूसरी व्यवस्था के तहत आप अपनी मनपसंद पुस्तक तय अवधि के लिए घर ले जा सकते थे। अपने पास पैसे तो होते नहीं थे, इसलिए दूसरी व्यवस्था को चुनने का सवाल ही नहीं था। सो, अवकाश के दिन सुबह-शाम और शेष दिनों में शाम को लाइब्रेरी जाना मेरा रूटीन बन गया था।
नियमित अखबार पढ़ने से मेरी लिखने की उत्कंठा और बढ़ने लगी। हालांकि, लिखता मैं अभी भी आत्मसंतुष्टि के लिए ही था, लेकिन पढ़ने के ट्रेंड में मैंने अब थोड़ा बदलाव कर दिया। कॉमिक्स की जगह उपन्यासों ने ले ली। 12वीं के बाद तो यह शौक और बढ़ गया। संयोग से 12वीं के बाद मैंने कॉलेज में प्रवेश नहीं लिया, बल्कि बीकॉम प्रथम वर्ष की परीक्षा प्राइवेट दी। फिर भी इस वर्ष (1988-89) को मैं जीवन में बदलाव की दृष्टि से महत्वपूर्ण मानता हूं, क्योंकि इसी वर्ष मैंने छात्र राजनीति में प्रवेश कर अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की। उस दौर में वामपंथी छात्र संगठन एसएफआई का बोलबाला हुआ करता था और कुछ साथियों के संपर्क में आने से मैं भी एसएफआई का सदस्य बन गया। इसी के साथ हुई छोटी-छोटी पुस्तकों से प्रगतिशील साहित्य पढ़ने की शुरुआत। उस दौर में सव्यसाची (प्रो. एसएल वशिष्ठ) की आठ-दस पुस्तिकाओं का सेट दस-पंद्रह रुपये में मिल जाता था।
ये आज भी मेरे जीवन की सर्वश्रेष्ठ पुस्तिकाएं हैं। समाज को वैज्ञानिक ढंग से समझने के लिए आज भी मूलरूप से हिंदी में इनसे बेहतर पुस्तिकाएं शायद ही उपलब्ध होंगी। अब पढ़ने का दायरा बढ़ना स्वाभाविक था। संयोग से इसी अवधि में मुझे भारतीय ज्ञान-विज्ञान समिति से जुड़ने का भी अवसर मिला। पौड़ी जिले में समिति के संचालन का जिम्मा बड़े भाई कॉमरेड विपिन उनियाल के पास था। उनके नेतृत्व में हमारी टीम ने पौड़ी व टिहरी जिले के एक बड़े इलाके में गांव-गांव जाकर नुक्कड़ नाटक व जनगीतों के माध्यम से लोगों को पढ़ने-लिखने के लिए प्रेरित किया। पहाड़ में हम नाटक गढ़वाली में ही करते थे। यहां तक कि संवाद भी सिचुएशन के हिसाब से तय होते थे।
इस दौरान जगह-जगह घूमने का एक फायदा यह हुआ कि मेरा मेल-जोल का दायरा बढ़ने लगा। अब मेरा उस दौर के प्रसिद्ध साप्ताहिक ‘सत्यपथ’ से भी परिचय हो चुका था। इस पत्र से तब कॉमरेड विपिन उनियाल, योगेंद्र उनियाल, अश्वनी कोटनाला जैसे साथी जुड़े थे और पत्र के संपादन का जिम्मा था शिक्षाविद पीतांबर दत्त डेवरानी के पास। उनके साथ काम करना अपने आप में एक गौरवपूर्ण अनुभूति है। डेवरानी जी उच्चकोटि के विद्वान होने के साथ शिक्षक भी थे, इसलिए हम सभी उन्हें गुरुजी कहते थे। उनसे मैं जितना भी सीख पाया, वह मेरे लिए किसी जमा-पूंजी से कम नहीं है। ‘सत्यपथ’ में मैंने लिखने का जो सलीका सीखा था, वह आज भी मेरे काम आ रहा है।
इसी वर्ष मुझे पहली बार एक रैली का हिस्सा बनकर लखनऊ जाने का मौका मिला। चार-पांच दिन के इस प्रवास के दौरान बहुत कुछ सीखा। कुछ पुस्तकें भी खरीदीं और विद्वजनों के लेक्चर सुनकर राष्ट्रीय राजनीति पर नज़रिया भी स्पष्ट हुआ। तब इस तरह के अनुभव पत्रकारिता में बहुत काम आते थे और सच कहूं तो मेरे आज भी आ रहे हैं। खैर! इस तरह के घटनाक्रमों के बाद मुझे लगने लगा था कि थोड़ा मेहनत करूंगा तो भविष्य में एक अच्छा पत्रकार साबित हो सकता हूं।
-दिनेश कुकरेती, वरिष्ठ पत्रकार