
देहरादून: उत्तराखंड हिमालय के चारधाम से तो सारी दुनिया परिचित है, लेकिन पंचकेदार समूह के मंदिरों के बारे में आज भी कम ही लोग जानते हैं। यहां तक कि उत्तराखंड में भी लोगों को ठीक से इनके बारे में जानकारी नहीं है। उस पर शीत केदार समूह के मंदिरों को जानने वाले तो शायद गिनती के ही होंगे। ये वही मंदिर हैं, जहां मुख्य मंदिरों के कपाट बंद होने के बाद शीतकाल में पंचकेदार विराजते हैं। आश्चर्य देखिए कि ये सभी मंदिर उसी कालखंड के हैं, जिस कालखंड में पंचकेदार समूह के मंदिरों का निर्माण हुआ और इनका माहात्म्य भी पंचकेदार जितना ही है। इसलिए यदि आप स्वास्थ्य संबंधी या अन्य कारणों से पंच केदार समूह के मुख्य मंदिरों (केदारनाथ, द्वितीय केदार मध्यमेश्वर, तृतीय केदार तुंगनाथ, चतुर्थ केदार रुद्रनाथ व पंचम केदार कल्पेश्वर) में दर्शनों को नहीं पहुंच पाए तो निराश होने की जरूरत नहीं है। इन मंदिरों में आकर भी पंचकेदार दर्शन का पुण्य अर्जित कर सकते हैं। ये मंदिर हैं, ऊखीमठ स्थित ओंकारेश्वर मंदिर, मक्कूमठ स्थित मार्कंडेय (मर्कटेश्वर) मंदिर और गोपेश्वर स्थित गोपीनाथ मंदिर। पंचम केदार कल्पेश्वर मंदिर के कपाट बारहों महीने खुले रहते हैं, इसलिए भगवान कल्पेश्वर को कहीं प्रवास पर नहीं जाना पडता। विशेष यह कि शीत केदार समूह के सभी मंदिर मोटर मार्ग से जुडे हैं। …तो आइए! शीत केदार समूह के इन मंदिरों के दर्शन करें।
ओंकारेश्वर धाम : यहां विराजते हैं पंचकेदार
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शीत केदार समूह के मंदिरों में पहला स्थान है ऊखीमठ स्थित ओंकारेश्वर मंदिर का। रुद्रप्रयाग जिले में समुद्रतल से 1311 मीटर की ऊंचाई पर स्थित यह मंदिर 11वें ज्योतिर्लिंग भगवान केदारनाथ। ही नहीं, द्वितीय केदार भगवान मध्यमेश्वर भी का भी शीतकालीन गद्दीस्थल है। शीतकाल के छह माह बाबा केदार और बाबा मध्यमेश्वर की पूजाए यहीं संपन्न होती हैं। सबसे अहम यह कि यहां पांचों केदार पिंडी रूप में विराजमान हैं, इसलिए इस मंदिर की ख्याति पंचगद्दी स्थल के रूप में भी है। यहां आने पर आपको एक साथ पांचों केदार के दर्शन हो जाते हैं। आप जब इच्छा हो ओंकारेश्वर धाम आ सकते हैं, क्योंकि यह मंदिर बारहों महीने दर्शनों के लिए खुला रहता है। 600 परिवार और लगभग 3,000 की आबादी वाले ऊखीमठ नगर में प्राकृतिक सुंदरता सर्वत्र बिखरी हुई है। यहां की सुरम्य वादियां, ठीक सामने नजर आने वाली चौखंभा की हिमाच्छादित चोटियां और बांज-बुरांश के घने जंगल हर किसी का मन मोह लेते हैं। नगर के मध्य में ओंकारेश्वर मंदिर स्थापित है। देश-दुनिया में यही एकमात्र मंदिर बचा है, जिसका निर्माण अतिप्राचीन धारत्तुर परकोटा शैली में हुआ है। ओंकारेश्वर मंदिर का निर्माण द्वापर युग में हुआ माना जाता है। मान्यता है कि शिव भक्त बाणासुर की बेटी उषा व भगवान कृष्ण के पोते अनिरुद्ध की शादी इसी स्थान पर हुई थी। इसलिए इस तीर्थ को देवी उषा के नाम पर उषामठ कहा जाने लगा। कालांतर में उषामठ का अपभ्रंश होकर पहले इसका नाम उखामठ और फिर ऊखीमठ नाम पड़ा। देवी उषा के आगमन से पूर्व इस स्थान का नाम ‘आसमा’ था। राजा मान्धाता की तपस्थली होने के कारण इसे मान्धाता भी कहा जाता है। इसलिए केदारनाथ की बहियों का प्रारंभ ‘जय मान्धाता’ से ही होता है।ऊखीमठ के आसपास चोपता, दुगलबिट्टा, देवरियाताल जैसे प्रसिद्ध पर्यटन स्थल स्थित हैं। भक्त पंचकेदार दर्शनों के साथ ही इन पर्यटन स्थलों की भी सैर कर सकते हैं। इसके अलावा त्रियुगीनारायण व कालीमठ जैसे प्रमुख तीर्थ स्थलों के दर्शनों को भी आसानी से पहुंचा जा सकता है।
मक्कूमठ के मर्कटेश्वर महादेव
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रुद्रप्रयाग जिले में समुद्रतल से 2100 मीटर की ऊंचाई पर मक्कूमठ गांव में स्थित मार्कंडेय (मर्कटेश्वर) मंदिर में तृतीय केदार भगवान तुंगनाथ शीतकाल के छह माह प्रवास करते हैं। रुद्रप्रयाग शहर से 44 किमी दूर स्थित पट्टी परकंडी और ऊखीमठ तहसील का मक्कूमठ गांव चारों ऒर से देवदार, बांज, बुरांश व थुनेर के घने जंगल से घिरा है। गांव का इतिहास प्रथम शताब्दी पूर्व से माना जाता है। मार्कंडेय ऋषि की तपोस्थली कहा जाने वाला यह क्षेत्र देवासुर संग्राम के साथ आर्य और अनार्य जातियों की संघर्ष गाथाएं अपने मे समेटे हुए है। प्राचीन आदिवासी जातियां ग्रीष्मकाल में अपने पशुओं के साथ बुग्यालों की प्राकृतिक सुषमा में और शीतकाल के दौरान मक्कू में रहकर जीवनयापन करती थीं। ये आदिवासी जातियां कालांतर में बौद्ध धर्म से प्रभावित हो गईं। बाद में सनातन धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए आए आदि शंकराचार्य ने यहां तुंगनाथ मठ की स्थापना की। लेकिन, वर्ष 1803 के भूकंप में प्राचीन सभ्यता का यह केंद्र तहस-नहस हो गया। उस दौर में गांव की परिधि चंद्रशिला शिखर तक फैली थी, जो कि समुद्रतल से 12,103 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। इस क्षेत्र में भगवान तुंगनाथ के दो मंदिर हैं, एक मक्कूमठ में और दूसरा समुद्र सतह से 12,073 फीट की ऊंचाई पर मुख्य मंदिर। दोनों की आकृति व रूप समान हैं। अंतर सिर्फ इतना है एक छह महीने बर्फ से ढका रहता है तो दूसरा सालभर खुला रहता है। पांडुकेश्वर, गोपेश्वर, नारायणकोटि, त्रियुगीनारायण व तुंगनाथ की ही तरह मर्कटेश्वर मंदिर भी कत्यूरी शैली में बना हुआ है, जिसे गुप्तोत्तरकालीन मंदिर स्थापत्य कहा जाता है। भगवान तुंगनाथ का शीतकालीन आवास होने के चलते यहां वर्ष में दो बड़े उत्सव ‘द्यवता औण’ (देवता का आना) और ‘द्यवता जौण’ (देवता का जाना) आयोजित होते हैं। ऊखीमठ के रास्ते मक्कूमठ पहुंचने के लिए 32 किमी और भीरी के रास्ते 16 किमी की दूरी तय करनी पड़ती है। यहां के एक जंगली रास्ते से तुंगनाथ की दूरी केवल आठ किमी है। मक्कूमठ दुर्लभ हिमालयी पक्षी प्रजातियों का घर है और उन लोगों के लिए एक अद्भुत जगह है जो शहर की हलचल से दूर किसी शांतिपूर्ण जगह की तलाश में हैं।
गोपेश्वर के गोपीनाथ
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चमोली जिला मुख्यालय गोपेश्वर में समुद्रतल से 1,308 मीटर की ऊंचाई पर स्थित गोपीनाथ मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। केदारनाथ मंदिर के बाद 71 फीट ऊंचा गोपीनाथ मंदिर उत्तराखंड के सबसे प्राचीन मंदिरों की श्रेणी में आता है। इस मंदिर में अन्य शिव मंदिरों की तरह भगवान शिव को दूध और जल अर्पित नहीं किया जाता, बल्कि यहां भगवान शिव का अभिषेक सिर्फ बिल्वपत्र से होता है। शीतकाल के लिए कपाट बंद होने पर पंचकेदार में चतुर्थ भगवान रुद्रनाथ यहीं अपने भक्तों को दर्शन देते हैं। इसलिए गोपीनाथ मंदिर की ख्याति रुद्रनाथ मंदिर के रूप में भी है। चारधाम यात्रा मार्ग में पड़ने के कारण यहां पहुंचने के लिए अतिरिक्त समय व धन की जरूरत नहीं पड़ती। गोपीनाथ मंदिर का इतिहास नवीं से 11वीं सदी के मध्य कत्यूरी शासन काल का माना जाता है। मंदिर में एक अद्भुत गुंबद और 24 दरवाजों से सुशोभित 30 वर्गफीट का एक गर्भगृह है। गर्भगृह में मौजूद स्वयंभू शिवलिंग को भगवान गोपीनाथ के रूप में पूजा जाता है। मुख्य मंदिर वास्तुकला की नागर शैली का अनुसरण कराता है, जो उसके विशाल शिखर और जटिल नक्काशी की विशेषता है। यह शैली उत्तर भारत में प्रचलित है और उस युग के कारीगरों के कुशल शिल्प कौशल को दर्शाती है। मंदिर की दीवारें भगवान भैरवनाथ और भगवान नारायण की छवियों से सुशोभित हैं। जबकि मंदिर प्रांगण में कई शिवलिंग और एक कल्पवृक्ष मौजूद है। मंदिर प्रांगण में 12वीं सदी का अष्टधातु निर्मित पांच मीटर लंबा त्रिशूल स्थापित है, जिसके मध्य में एक परशु भी है। त्रिशूल को उसके आकार, बनावट व उसमें उत्कीर्ण लेखों के आधार पर तीन हिस्सों- ऊपरी फलक, मध्य फलक व आधार फलक में विभक्त किया जा सकता है। ऊपरी फलक त्रिशूल का मुख भाग है। मध्य फलक, जिस पर नाग वंश के शासक गणपति नाग का प्रशस्ति लेख अंकित है और आधार फलक, जिस पर नेपाल के मल्ल राजा अशोक चल्ल का 1191 ईस्वी का प्रशस्ति लेख अंकित है। गणपति नाग के दक्षिणी ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण अभिलेख में गणपति नाग के अतिरिक्त तीन अन्य नाग राजाओं स्कंद नाग, विभु नाग व अंशु नाग के नामों का भी उल्लेख है। अभिलेख से ही यह जानकारी भी मिलती है कि गणपति नाग ने अपने द्वितीय राजवर्ष में रुद्रमहालय के समक्ष शक्ति (त्रिशूल) की स्थापना की। इतिहासकारों ने उक्त अभिलेख के अंकन का काल छठी सदी बताया है। इसी आधार पर कहा जा सकता है कि गोपीनाथ मंदिर के प्रांगण में त्रिशूल की स्थापना छठी से सातवीं सदी के दौरान नागवंशीय शासक गणपति नाग ने की होगी।
दिनेश कुकरेती (लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार हैं)