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पूछना था कि क्या ‘साहित्यकार’ होने के लिए सरकारी संस्थान की मुहर ज़रूरी है!

- उत्तराखंड भाषा संस्थान के साहित्य गौरव पुरस्कार के लिए हुई जुगाड़बाजी से उठ रहे सवाल

– लक्ष्मी प्रसाद बडोनी
देहरादून: उत्तराखंड साहित्य गौरव पुरस्कार के ‘सफल’ आयोजन को 12 दिन होने को आए, लेकिन सवालों का सिलसिला बना हुआ है, जिनका उत्तर पाने के लिए दिल बेचैन है। इक सवाल यह पूछना था कि साहित्य गौरव होने के लिए क्या किसी सरकारी संस्थान की मुहर ज़रूरी है। क्या कबीर, सूर, तुलसी, निराला, बाबा नागार्जुन, दुष्यंत कुमार जैसे दिग्गज क़लमकारों को ख़ुद को मनवाने के लिए किसी सरकारी संस्थान का सहारा लेना पड़ा था। तो देवभूमि में सरकारी पुरस्कार के लिए जुगाड़बाजी ‘सरकारी सर्टिफिकेट’ के लिए हो रही है या उसके साथ दिए जाने वाले ‘चेक’ के लिए। ऐसे ही जानने की इच्छा है। किसी को पता हो, तो मुझे भी बताना।
उत्तराखंड भाषा संस्थान की ओर से हाल ही में दिए गए साहित्य गौरव सम्मान की चर्चा दून से बाहर दिल्ली में भी होने लगी है। कई लोगों ने पोस्ट शेयर कर इस स्थिति को चिंताजनक बताया है। सवाल उठ रहा है कि कुछ लोग पुरस्कार पाने के लिए इतने उतावले क्यों हो रहे हैं। क्यों अपना समय साहित्य की समझ पैदा करने में नहीं लगा रहे? जुगाड़बाजी करके क्यों जबरन साहित्यकार का तमगा हासिल करना चाहते हैं।
उत्तराखंड की चर्चित कथाकार कुसुम भट्ट भी पुरस्कारों में कथित गड़बड़झाले को लेकर ख़फ़ा हैं। कुछ पुरस्कारों को लेकर वह चयन समिति के चयन पर भी सवाल उठाती हैं। उनका कहना है कि सबका साहित्य नेट पर उपलब्ध है और पाठकों की प्रतिक्रिया से देखा और समझा जा सकता है कि किसका लेखन पुरस्कार योग्य है। वरिष्ठ साहित्यकार रतन सिंह किरमोलिया तो स्पष्ट कहते हैं कि अच्छे साहित्यकार को किसी सरकारी संस्थान की मुहर की ज़रूरत नहीं है। ऐसे साहित्यकार बाबा नागार्जुन जैसे फक्कड़ों से सीख क्यों नहीं लेते कि पुरस्कार के पीछे भागना नहीं है, बल्कि अपना कद ऐसा बनाना है कि पुरस्कार देने वाले ख़ुद आपके पीछे दौड़ें।

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