
ग़ज़ल
सोचकर देखा बारहा खुद को।
फिर किया हमने आइना खुद को।।
मैकदे से निकलते देखा है।
कह रहा था जो पारसा खुद को।।
ढूंढ़ते आएगी हमें मंजिल।
कर लिया हमने रहनुमा खुद को।।
फा़तिहा खुद का खुद पढ़ा पहले।
फिर कहा हमने अलविदा खुद को।।
साथ रोए-हंसे अभी तक हम।
चल कहें कुछ तो शुक्रिया खुद को।।
रातभर रतजगा किया हमने।
देखकर रात ग़मज़दा खुद को।।
रास्ता रोकते भला कब तक।
दे दिया ‘दर्द’ रास्ता खुद को।।
दर्द गढ़वाली, देहरादून