जब शादां इंदौरी की नात पर हुआ विवाद, यूं सुलझा मामला
♦️जब उस्तादों के उस्ताद ने सुलझाया उस्ताद साग़र सा. और उस्ताद शादां सा. का विवाद, आठ-दस साल बाद इंदौर में नहीं होगा कोई शाइर

उत्तर प्रदेश में दो ख़ैराबाद हैं। एक आजमगढ़ के पास और दूसरा सीतापुर के पास। दोनों ही जगह के शाइर अपने नाम के बाद ख़ैराबादी लगाते हैं इसलिए अक्सर लोग कन्फ्यूज़ हो जाते हैं।
पुराने लोग बताते हैं कि सन् 1915-20 के आसपास उत्तरप्रदेश के सीतापुर वाले ख़ैराबाद से *अल्लामा ग़रीक़ ख़ैराबादी सा.* इंदौर आए थे। वे हकीम होने के साथ-साथ शाइर भी थे और एक आध्यात्मिक व्यक्ति भी। कई लोग कहते हैं कि वे *वली* भी थे। इंदौर की *मस्जिद-ए- रंगरेज़ा* में उनका हुजरा हुआ करता था। उनके नाम के आगे लोग अल्लामा लगाते थे क्योंकि वे अरबी, फ़ारसी और उर्दू के बड़े विद्वान थे। उनके विषय में किसी दिन तफ़सील से बात होगी।
उनके शागिर्दों में हकीम शम्सी सा.,शादां इंदौरी सा. कमरूद्दीन ‘क़मर’ सा., तांबा इंदौरी सा., मो. हुसैन ‘सहर’ सा., क़यामुद्दीन ‘सहबा’ सा., मो. इब्राहीम शरीफ़ ग़रीक़ी सा. समेत कुछ और लोग भी शामिल थे।
शम्सी साहब और शादां साहब ने हिक़मत भी उन्हीं से सीखी थी।
अब हम उस दौर से आगे आते हैं जब अल्लामा ग़रीक़ ख़ैराबादी सा. इस दुनिया से रुखसत हो चुके थे और इस इंदौर में क़रीब 17-18 नये उस्तादों का दौर शुरू हो गया था। उन उस्तादों में से ख़ासकर साग़र चिश्ती उज्जैनी सा. और शादां इंदौरी सा. की तकरारों का ज़िक्र काफ़ी आता है। उनका ये टकराव वैसे ही हुआ करता था जैसा किसी ज़माने में मिर्ज़ा ग़ालिब और उस्ताद ज़ौक के बीच होता था। लेकिन एक समय तो उनके बीच एक ऐसा विवाद पैदा हुआ जिसने बहुत ज़्यादा तूल पकड़ लिया।
हुआ यूं कि इंदौर में एक तरही नातिया मुशायरा रखा गया। उसमें जो तरही मिसरा दिया गया था, उसमें *क़ाफ़िया दीवाने, परवाने आदि थे और रदीफ़ थी- मुहम्मद के*।
मुशायरे में शादां इंदौरी सा. ने जो ना’त पढ़ी उसमें किसी एक शे’र में उन्होंने बांधा था-
*अफ़साने मुहम्मद के*
साग़र साहब ने इस पर एतराज़ किया। उनका कहना था कि हज़रत मोहम्मद साहब की हर बात हक़ीक़त थी। इसलिए उन्हें अफ़साना कैसे कहा जा सकता है। जब इस मुशायरे के बाद भी ये विवाद दिन-ब-दिन बढ़ता ही रहा तो कुछ लोगों ने इसे सुलझाने के लिए हकीम शम्सी सा. की मदद लेने का फ़ैसला किया।
हकीम शम्सी सा. एक तरफ़ तो शादां साहब के उस्ताद भाई थे, तो दूसरी तरफ़ वे साग़र साहब के दूर के रिश्ते से भाई भी लगते थे। वे उम्र में भी शादां साहब से बड़े थे और उनकी पहचान एक सूफ़ी संत के तौर पर भी थी। वे बुज़ुर्ग शायर युसूफ़ मंसूरी सा.( पिंजरा बाखल) के घर के कुछ आगे मौजूद मस्जिद में रहते थे और रिश्ते में उनके ख़ालू (मौसा) लगते थे।
मंसूरी साहब बताते हैं कि तब कुछ लोग साग़र सा. और शादां सा. को हकीम शम्सी सा. के पास लेकर गये और सारा मामला उन्हें बताया। हकीम शम्सी सा. ने जब वो विवादित शे’र सुना तो वे थोड़ी देर ख़ामोश हो गये और फिर साग़र साहब की तरफ़ मुख़ातिब होकर बोले कि–
*किसी भी घटना को बयान करने को अरबी भाषा में क़िस्सा लफ़्ज़ का इस्तेमाल किया जाता है। अरबी भाषा में अफ़साना लफ़्ज़ नहीं है। उसी तरह फ़ारसी भाषा में क़िस्सा लफ़्ज़ नहीं है, इसके बदले वहां अफ़साना लफ़्ज़ इस्तेमाल किया जाता है। इसलिए शादां ने जो शे’र कहा है, उसमें – ‘अफ़साने मुहम्मद के’ बिल्कुल ठीक है।*
इस
उनके इस जवाब से साग़र साहब मुत्मइन हो गये। फिर हकीम शम्सी सा. शादां साहब की तरफ़ मुख़ातिब हुए और कहा–
*शादां, तुम तो बड़े ज़हीन हो मगर तुम्हें भी ऐसे अल्फाज़ बरतने से बचना चाहिए,जिनके इस्तेमाल से विवाद या भ्रम की स्थिति पैदा होने की आशंका हो।*
इस बात पर शादां साहब ने भी अपनी सहमति जताई और तब कहीं जाकर ये विवाद ख़त्म हुआ।
हकीम शम्सी सा. ने जिस चतुराई से इस मामले को सुलझाया, उसकी हर किसी ने तारीफ़ की।
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*आठ-दस साल बाद इंदौर में नहीं रहेगा कोई शाइर*
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पिंजरा बाखल में एक मकान है। जिसके एक कमरे के नसीब में मुश्किल से साढ़े पांच फुट चौड़ाई है और बमुश्किल साढ़े आठ-नौ फुट लंबाई है। अंदर आते ही लगता है जैसे किसी रेल के डिब्बे में दाख़िल हो गये हों। जिस तरह रेल में मीडिल बर्थ होती है, जिसमें एक मध्यम क़द का आदमी भी सीधा होकर नहीं बैठे सकता, बस उससे थोड़ा ऊंचा बर्थनुमा एक प्लेटफार्म इस कमरे में बना है। ये बर्थनुमा प्लेटफार्म एक व्यक्ति के लिए सोने का कमरा भी है और स्टडी रूम भी है। उसी एक कोने में उस शख़्स की दवाएं और किताबें भी मौजूद हैं। उसी प्लेटफार्म से लगकर एक दो-तीन फुट की टेबल रखी है जिस पर सिंगल चुल्हे वाला गैस का चुल्हा रखा है। बाकी एक-डेढ़ फुट की जगह में ज़रुरत का कुछ और सामान भरा हुआ है।
(फोटो में युसूफ़ मंसूरी साहब और उनके बर्थनुमा कमरे का नज़ारा)
जो शख़्स इस बर्थनुमा कमरे में लेटा है, उसके घुटनों पर सूजन है। डाक्टर ने कहा है कि आप पैर को सीधा ज़्यादा से सीधा रखें। तो ये शख़्स अपने साढ़े पांच फुट चौड़े इस प्लेटफार्म पर तिरछा होकर लेटा है ताकि उसके पैर सीधे रह सकें। पैर की सूजन के अलावा प्रोस्टेट के साथ जिस्म में कुछ और भी बीमारियों ने घर कर लिया है। हाथ हमेशा तंग रहता है। कभी मोबाइल रिचार्ज तो कभी दवाओं का खर्च ज़िंदगी को मुश्किल से मुश्किलतर बनाते रहते हैं।लेकिन हैरत इस बात की है कि अगर आप इस शख़्स मिलेंगे तो उस मुलाक़ात के बाद आप ख़ुद में एक नई एनर्जी महसूस करेंगे। क्योंकि इस शख़्स की हर बात में एक नई उम्मीद और ताज़गी की मौजूदगी है।
CUT TO…
इसी शख़्स ने हिंदुस्तान में पहली बार एक ऐसी किताब लिखी है कि मशहूर आलोचक *शम्सुर्रहमान फ़ारुख़ी सा*. को भी मजबूर हो कर उस किताब के लिए मज़मून लिखना पड़ा।
इस शख़्स का नाम है *युसुफ़ मंसूरी*। किताब का नाम है – *काविश*, जिसमें समाया हुआ है *काफ़िये का आसान इल्म*।
हाल ही मैं जब मैं उनसे मिलने घर गया तो बातों-बातों में उन्होंने मुझसे एक ज़बरदस्त बात कही। उन्होंने कहा कि इंदौर में हमारी उम्र के जो शाइर हैं, वो सब आठ-दस साल में रुख़सत हो जाएंगे तो फिर इंदौर में कोई शाइर नहीं बचेगा।
मैंने हैरान होकर उनसे कहा कि ऐसा कैसे हो सकता है? बहुत से नए लोग आ रहे हैं और शाइरी भी कर रहे हैं। तो वे कहने लगे कि *आजकल तो जो भी नया शाइर आ रहा है, वो ख़ुद को उस्ताद ही समझता है। इसलिए आठ-दस साल बाद शहर में सब उस्ताद ही उस्ताद होंगे.. उनमें एक भी शाइर नहीं होगा।*
दोस्तो!
युसूफ़ मंसूरी सा. की बात सुनकर मैंने भी जब इस बात पर ग़ौर किया तो उनकी भविष्यवाणी में मुझे दम नज़र आया। दरअसल पहले जो उस्तादी- शागिर्दी का सिलसिला था, वो अब बहुत कमज़ोर पड़ चुका है। कई शाइर ऐसे हैं जिन्होंने एक से ज़्यादा उस्ताद बना रखे हैं। कई नये शोअरा का एटिट्यूड वाक़ई किसी उस्ताद से कम नहीं लगता है। ये आने वाले समय के लिए अच्छा संकेत नहीं है।
(✍️ अखिल राज, पत्रकार-लेखक-शायर)