गहरे चिंतन की गवाह हैं मधु मधुमन की ग़ज़लें
संजीव प्रभाकर ने की मधु मधुमन के ग़ज़ल संग्रह 'ख़्वाब सी ये ज़िंदगी' की समीक्षा

चिंतन संवेदना से ऊपर की अवस्था है। संवेदनाओं की अनुभूति एक प्रक्रिया है जबकि चिंतन उस अनुभूति के मंथन से निकला हुआ मक्खन। लेकिन यह भी बहुत जरूरी है कि चिंतन के समय पेट भरा हुआ हो। मधु मधुमन की ग़ज़लगोई में उनकी चिंतन धाराएँ अबाध रूप से प्रवाहित होती हैं। यह कहीं भी टूटती या स्खलित नहीं होती हैं। यह संवेदना की अनुभूति के हद से गुजर जाने की अवस्था हो सकती है। जब मधु मधुमन लिखती हैं –
न मंजिल है न-ही कोई ठिकाना
भटकते फिर रहे हैं ला-मकाँ से
सँवारे रूह को क्या ख़ाक कोई
फरागत ही नहीं कारे -जहाँ से
निकलता जा रहा है वक्त मधुमन
जरा अब जागिए ख़्वाबे-गिराँ से
तो इनकी चिंतन की गहराई का अंदाजा लगाना मुश्किल हो जाता है। ये उस ऊंचाई तक जाती हैं जिसे बुद्ध ने अव्यक्तानि कहा है। इस स्थिति में भाषा का संकट पैदा हो जाता है। लेकिन मधु मधुमन के पास भाषा का कोई संकट नहीं है। इनकी गज़लगोई में तसव्वुफ है जो इनके गहरे जीवन अनुभवों और अध्ययन की तरफ इशारा करता है।
जिंदगी का पाठ अनुभव की किताबों से मिलता है और अनुभव उम्र की अलमारी से। मधु मधुमन ने ऐसे-ऐसे शेर कहे हैं, जिनके होने में उम्र की अहर्ता भी आवश्यक है।
वो रोज करते हैं दावा जो रहनुमाई का
फ़क़त दिखावा है यह उनकी पारसाई का
मिले हैं आपको धोखे तो इसमें हैरत क्या
यही सिला है जमाने में अब भलाई का
हर एक शख्स से मत बाँटिएगा गम अपने
यहाँ पहाड़ बनाते हैं लोग राई का
मधु मधुमन की रचना धर्मिता विस्तृत है। इन्होंने गीत ग़ज़ल दोहे माहिए नज़्म छंद आदि में सृजन किया है। इनका सातवाँ ग़ज़ल संग्रह है ‘ख़्वाब सी ये ज़िन्दगी ‘। इससे पहले इनके छे ग़ज़ल संग्रह लोबान, वक्त की दहलीज, धनक बाकी है, लम्हों की फुलकारी, उजालों का सफर और पंछी यादों के मंज़रे-आम पर शाया हो चुके हैं।
मधु मधुमन की ग़ज़लगोई में आला दर्जे का तगज्जुल है। इनकी ग़ज़लें लंबी-लंबी होती हैं। इनकी ग़ज़लों में 8 से 10 शेर आम है। इतनी लंबी गज़लें लिखना इम्तिहान देने से कम नहीं। काफ़िया रदीफ़ के साथ न्याय करना हर शेर के साथ बहुत मुश्किल का काम है। हर ग़ज़ल इम्तिहान का एक पेपर होता है। इन्होंने अपनी लगभग हर ग़ज़ल में 8 से 10 शेरों को लिया है और इसमें क़ाफ़िया रदीफ को इतने अच्छे से निभाया है कि कहीं ये जबरदस्ती चस्पा किए हुए नजर नहीं आते।
मिली जो जिंदगी से हमको मधुमन
न जाने किन गुनाहों की सज़ा है।
मधु मधुमन का यह शेर जर्मन दार्शनिक आर्थर शॉपनहाउर के नास्तिक आध्यात्मिक और नैतिक प्रणाली के काफी निकट है। इनका यह शेर स्वयं को नकारता है। कृष्ण बिहारी नूर का यह शेर भी इसी मफ़हूम को लिए हुए है- जिंदगी से बड़ी सज़ा ही नहीं, और क्या जुर्म है पता ही नहीं।
भारतीय दर्शन के कर्म सिद्धांत का प्रतिपादन करता हुआ मधु मधुमन का यह शेर उत्कृष्ट बन पड़ा है –
लौटकर आपके पास ही आएगी
हर किसी के लिए ही दुआ कीजिए
भारतीय दर्शन का कर्म सिद्धांत यह कहता है कि हर चीज का हिसाब होना तय है। कृतपनाश अर्थात कर्म बिना फल दिए नष्ट नहीं हो सकता और अकृतम उपगम अर्थात जो नहीं किया गया है उसका फल नहीं मिलना तय है। कर्मफल न तो शिफ्ट किया जा सकता है और न ही नष्ट किया जा सकता है। मधु मधुमन की ग़ज़लगोई गहरे जीवन- दर्शन की ग़ज़लगोई है। यहाँ भाषा और चिंतन दोनों की परिपक्वता है।
ज़िन्दगी की कश्मकश को इन्होंने अपने अशआर में बड़े करीने से समेटा है। शेर की नाजुकी देखते बनती है –
उमीदों के परिंदों को उड़ाकर
कफ़स से दी रिहाई आज मैंने
बहुत चुभने लगा था ख़्वाब मुझको
उसे दे दी विदाई आज मैंने
फ़क़त इक आईना है और इक मैं
अजब महफ़िल सजाई आज मैंने
शबे-गम में चरागे-दिल जलाकर
बहुत की रौशनाई आज मैंने
शबे-ग़म में चरागे-दिल जलाकर उजाला कर देना मानवीय जीवन की विडंबनाओं का एक पूरा दृश्य सामने रख देता है जिसमें ज़िन्दगी के ज़ज़्ब हो जाने का कारण दिखाई देता है।
मधु मधुमन जब यह कहती हैं –
पढ़ न पाए दर्द अपनों का ही गर
दुनिया भर की ये पढ़ाई किसलिए
और
फासले रिश्तों के कम हो जाएँगे
मैं को अपनी तुम झुकाओ तो सही
यक़ीँ कैसे न करती अब मैं उसका
क़सम खायी थी उसने मेरे सर की
तो, ग़ज़ल की सादगी और ग़ज़लगोई के सलीके की खुशबू मन को तृप्त कर देती है।
मधु मधुमन ने सामाजिक व्यवस्था में महिलाओं की स्थिति पर जो शेर कहे हैं वे दोनों, महिला और समाज, को कटघरे में खड़ा करता है।
फैसले की नहीं थी आजादी
वैसे लादा बदन पे सोना था
सांस ली और सांस छोड़ी बस
ये तमाशा ही माहो -साल हुआ
इन परिंदों को है आसमां की तलब
अब इन्हें सिर्फ दाना नहीं चाहिए
इनके अशआर में समाज की ग्लास सीलिंग(अदृश्य बाधा ) के विरोध में महिलाओं के न लामबंद होने का गुस्सा है। महिलाएं अपनी स्थिति के लिए स्वयं जिम्मेदार हैं।
मधु मधुमन की ग़ज़लगोई में जल्दबाजी या धरफ़राहट नहीं है। इनकी शायरी में एक सुकून है। यह सुकून सब कुछ जान लेने के बाद यह जान लेने का सुकून है कि हमने कुछ नहीं जाना –
जो मंजिल को भी रस्ता जानते हैं
वही दुनिया बदल ना जानते हैं
जिन्हें लगता है ज्यादा जानते हैं
वही दरअस्ल थोड़ा जानते हैं
मधु मधुमन ने अपनी ग़ज़लों में क़ाफ़िया रदीफ़ को इस तरह से निभाया है कि हर शेर अपना अलग वजूद रखते हुए भी मुसलसल ग़ज़ल की तरह एक पूरी कहानी कहता हुआ मालूम पड़ता है। शेरों के बीच विरोधाभास नहीं है। ग़ज़ल के अशआर शुरू से अंत तक काफिये और रदीफ़ से ही नहीं, बल्कि मफहूम से भी एक दूसरे से जुड़े नज़र आते हैं। इसलिए इनकी ग़ज़लों में सुगम एवं स्वभावगत प्रवाह है। ग़ज़लगोई की यह सलाहियत और सलीका विरले ही देखने को मिलता है। सादगी और सफाई से शेर कहना एक फनकारी है। और मधु मधुमन इसमें माहिर हैं।
समीक्षक संजीव प्रभाकर