साहित्य

गालियों को भी कविता में बदल देते थे फिराक गोरखपुरी

फिराक गोरखपुरी की शायरी में रची-बसी थी भारतीय संस्कृति

‘एक मुद्दत से तिरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं।’ इस शेर के ख़ालिक़ थे फिराक गोरखपुरी।
28 अगस्त 1896 को गोरखपुर (उ.प्र.) में जन्मे नामवर शायर फिराक गोरखपुरी का मूल नाम रघुपति सहाय था। पूरे प्रदेश में चौथा स्थान पाने के बावजूद आई.सी.एस. की नौकरी छोड़कर वह आजादी के संघर्ष में कूद पड़े थे। डेढ़ वर्ष तक जेल की सलाखों के पीछे रहे। बाद में 1930 से 1959 तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्रोफेसर रहे। उन्हें 1970 में उनकी किताब ‘गुले नगमा’ को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला। नजीर अकबराबादी, इल्ताफ हुसैन हाली जैसे जिन कुछ शायरों ने इस रवायत को तोड़ा, उनमें एक प्रमुख नाम फिराक गोरखपुरी का भी है। उनके शब्दों में देश-दुनिया का दुख-दर्द निजी अहसासात में शायरी बनकर ढला। फिराक साहब ने अपने साहित्यिक सफर की शुरुआत ही गजल से की थी- कम से कम मौत से ऐसी मुझे उम्मीद नहीं, जिंदगी तूने तो धोखे पे दिया है धोखा। उन्हें गुले-नग्मा के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार, ज्ञानपीठ पुरस्कार और सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड से सम्मानित किया गया। बाद में 1970 में इन्हें साहित्य अकादमी का सदस्य भी मनोनीत कर लिया गया था। फिराक गोरखपुरी को साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में सन 1968 में भारत सरकार ने पद्म भूषण से सम्मानित किया था। वह छह दिसंबर, 1926 को ब्रिटिश सरकार के राजनैतिक बंदी बना लिए गए। उनकी उर्दू शायरी का एक बड़ा वक्त रूमानियत, रहस्य और शास्त्रीयता का रहा, जिसमें लोकजीवन और प्रकृति के पक्ष बहुत कम उभर पाए। दैनिक जीवन के कड़वे सच और आने वाले कल के प्रति उम्मीद, दोनों को भारतीय संस्कृति और लोकभाषा के प्रतीकों से जोड़कर फिराक ने अपनी शायरी का अनूठा महल खड़ा किया। फारसी, हिंदी, ब्रजभाषा और भारतीय संस्कृति की गहरी समझ के कारण उनकी शायरी में भारत की मूल पहचान रची-बसी रही। जो उलझी थी कभी आदम के हाथों, वो गुत्थी आज तक सुलझा रहा हूं।
फिराक गोरखपुरी की शायरी में गुल-ए-नगमा, मश्अल, रूह-ए-कायनात, नग्म-ए-साज, ग़ज़लिस्तान, शेरिस्तान, शबनमिस्तान, रूप, धरती की करवट, गुलबाग, रम्ज व कायनात, चिरागां, शोअला व साज, हजार दास्तान, बज्मे जिन्दगी रंगे शायरी के साथ हिंडोला, जुगनू, नकूश, आधीरात, परछाइयाँ और तरान-ए-इश्क जैसी खूबसूरत नज्में और सत्यम् शिवम् सुन्दरम् जैसी रुबाइयों हैं। उन्होंने एक उपन्यास साधु और कुटिया और कई कहानियाँ भी लिखी हैं। उर्दू, हिंदी और अंग्रेजी भाषा में गद्य की भी दस पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं।
रेहान फजल फिराक साहब से जुड़ा मुंबई का एक वाकया कुछ इस तरह बयान करते हैं- ‘किस्सा मुम्बई का है। वहाँ फ़िराक़ के कई दोस्त थे। उनमें से एक थीं मशहूर अभिनेत्री नादिरा। उस दिन फ़िराक़ सुबह से ही शराब पीने लगे थे और थोड़ी देर में उनकी ज़ुबान खुरदरी हो चली थी। उनके मुँह से जो शब्द निकल रहे थे वो नादिरा को परेशान करने लगे थे। जब वो फ़िराक़ के इस मूड को हैण्डिल नहीं कर पाईं तो उन्होंने इस्मत चुग़ताई को मदद के लिए फ़ोन किया। जैसे ही इस्मत नादिरा के फ़्लैट में घुसी, फ़िराक़ की आँखों में चमक आ गई और बैठते ही वो उर्दू साहित्य की बारीकियों पर चर्चा करने लगे। नादिरा ने थोड़ी देर तक उनकी तरफ़ देखा और फिर बोलीं, ‘फ़िराक़ साहब आपकी गालियाँ क्या सिर्फ़ मेरे लिए थीं?’ फ़िराक़ ने जवाब दिया, ‘अब तुम्हें मालूम हो चुका होगा कि गालियों को कविता में किस तरह बदला जाता है।’ इस्मत ने बाद में अपनी आत्मकथा में लिखा, ‘ऐसा नहीं था कि नादिरा में बौद्धिक बहस करने की क्षमता नहीं थी। वो असल में जल्दी नर्वस हो गईं थी।
——————-
फिराक गोरखपुरी की तीन ग़ज़लें

किसी का यूं तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी
ये हुस्न ओ इश्क़ तो धोका है सब मगर फिर भी

हज़ार बार ज़माना इधर से गुज़रा है
नई नई सी है कुछ तेरी रहगुज़र फिर भी

कहूं ये कैसे इधर देख या न देख उधर
कि दर्द दर्द है फिर भी नज़र नज़र फिर भी

झपक रही हैं ज़मान ओ मकां की भी आंखें
मगर है क़ाफ़िला आमादा-ए-सफ़र फिर भी

शब-ए-फ़िराक़ से आगे है आज मेरी नज़र
कि कट ही जाएगी ये शाम-ए-बे-सहर फिर भी

लुटा हुआ चमन-ए-इश्क़ है निगाहों को
दिखा गया वही क्या क्या गुल ओ समर फिर भी

ख़राब हो के भी सोचा किए तिरे महजूर
यही कि तेरी नज़र है तिरी नज़र फिर भी

लिपट गया तिरा दीवाना गरचे मंज़िल से
उड़ी उड़ी सी है ये ख़ाक-ए-रहगुज़र फिर भी

तिरी निगाह से बचने में उम्र गुज़री है
उतर गया रग-ए-जां में ये नेश्तर फिर भी

ग़म-ए-फ़िराक़ के कुश्तों का हश्र क्या होगा
ये शाम-ए-हिज्र तो हो जाएगी सहर फिर भी

फ़ना भी हो के गिरां-बारी-ए-हयात न पूछ
उठाए उठ नहीं सकता ये दर्द-ए-सर फिर भी

अगरचे बे-ख़ुदी-ए-इश्क़ को ज़माना हुआ
‘फ़िराक़’ करती रही काम वो नज़र फिर भी
——————-
आंखों में जो बात हो गई है।
इक शरह-ए-हयात हो गई है।।

जब दिल की वफ़ात हो गई है।
हर चीज़ की रात हो गई है।।

ग़म से छुट कर ये ग़म है मुझ को
क्यूं ग़म से नजात हो गई है।।

मुद्दत से ख़बर मिली न दिल की।
शायद कोई बात हो गई है।।

जिस शय पे नज़र पड़ी है तेरी।
तस्वीर-ए-हयात हो गई है।।

अब हो मुझे देखिए कहां सुब्ह।
उन ज़ुल्फ़ों में रात हो गई है।।

दिल में तुझ से थी जो शिकायत।
अब ग़म के निकात हो गई है।।

जो चीज़ भी मुझ को हाथ आई।
तेरी सौग़ात हो गई है।।

क्या जानिए मौत पहले क्या थी।
अब मेरी हयात हो गई है।।

घटते घटते तिरी इनायत।
मेरी औक़ात हो गई है।।

इस दौर में ज़िंदगी बशर की।
बीमार की रात हो गई है।।

मिटने लगीं ज़िंदगी की क़द्रें।
जब ग़म से नजात हो गई है।।

वो चाहें तो वक़्त भी बदल जाए।
जब आए हैं रात हो गई है।।

इक्का-दुक्का सदा-ए-ज़ंजीर।
ज़िंदां में रात हो गई है।।

एक एक सिफ़त ‘फ़िराक़’ उस की।
देखा है तो ज़ात हो गई है।।
——————-
जिन की ज़िंदगी दामन तक है बेचारे फ़रज़ाने हैं।
ख़ाक उड़ाते फिरते हैं जो दीवाने दीवाने हैं।।

वहदत-ए-इंसां अपने को शाइर से मनवा लेती है।
क्या अनजाने क्या बेगाने सब जाने-पहचाने हैं।।

मुझ को शाइर कहने वालो मैं क्या मेरी ग़ज़लें क्या।
मैं ने तो बस सरकार-ए-इश्क़ में कुछ पर्चे गुज़राने हैं।।

भोले-भाले महबूबों से दांव-पेच कुछ चल न सका।
हम ये समझते रहे अभी तक हम भी कितने सियाने हैं।।

शाइ’र से हमदर्दी सीखो दुनिया के ग़म-ख़ाने में।
जितने ग़म हैं दुनिया भर में इस के माने-जाने हैं।।

शहर-ए-निगारां शहर-ए-निगारां कौन बताए कैसा है।
पूछते हो क्या हम से यारो हम भी तो बेगाने हैं।।

बस वो उन्हीं से फ़ितरत को ख़ालों के लिबास पहनाता है।
शाइ’र के पल्ले क्या है गीतों के ताने-बाने हैं।।

कितने बेगाने होते हैं ये जाने-पहचाने लोग।
जाने हुए भी ब-क़ौल हमारे अनजाने बेगाने हैं।।

आज से पहले कब थे वतन में बे-वतनी के ये लच्छन।
लोगों को ये कहते सुना है घर भी ग़ुर्बत-ख़ाने हैं।।

कुछ नहीं खुलता किस की ज़द में ये हस्ती-ए-गुरेज़ां है।
हम जो इतने बचे फिरते हैं किन तीरों के निशाने हैं।।

इस गुम-कर्दा-ए-दीदा-ओ-दिल को कल तक कितने जानते थे।
अब तो ‘फ़िराक़’-ए-बे-ख़ुद के आलम-आलम अफ़साने हैं।।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button