हमारे दौर की मुट्ठी का आफताब …कंवल जियाई
कंवल जियाई के नाम से प्रसिद्ध हुए शायर जनाब हरदयाल सिंह दत्ता का जन्म 15 मार्च 1927 को कंजरूर दत्तन, सियालकोट , (अब पाकिस्तान ) में हुआ था। उन्हें नागरिक परिषद से दून रतन पुरस्कार मिला । उन्होंने उर्दू फाजिल प्रमाण पत्र प्राप्त किया । वह रक्षा विभाग से सेवानिवृत्त हुए थे। वह बज़्म-ए-जिगर के अध्यक्ष भी रहे थे ।
जमींदारी वैभव में पले हरदयाल सिंह दत्ता के लिए अभी दुनिया को जानने समझने का समय आया ही था कि देश के बंटवारे के रूप में घटी इस सदी की महानतम घटना ने उन्हें अपना जन्म स्थान सियालकोट छोड़ने पर मजबूर कर दिया। इस त्रासदी के शिकार करोड़ों लोगों के सामने अनिश्चित भविष्य था और अपनी मिट्टी से कट जाने का दुःख भी, अपने पुरखों की धरती को छोड़ कर अनजाने देश में अनजाने लोगों के बीच अपने पैर जमाने की कोशिश करते और अपना भविष्य तलाशते अनगिनत लोग, उस ज़माने के हरदयाल सिंह दत्ता जिन्हें आज हम कँवल ज़ियाई के नाम से जानते हैं,लोगों की इसी भीड़ का एक हिस्सा बन कर सरहद के इस पार आ तो गए लेकिन ‘कँवल ज़ियाई’ इस भीड़ का हिस्सा बन कर रह जाएँ ये न तो कंवल ज़ियाई को ही मंज़ूर था और न विधाता को. घोर संघर्ष के उन दिनों में उनके जिगरी दोस्त और बचपन के हमजोली सिने अभिनेता पद्मश्री राजेन्द्र कुमार ने अपने साथ मुंबई चलने का सुझाव दिया लेकिन उन्होंने अपने लिए फ़ौज में जाने का विकल्प चुना। राजेन्द्र कुमार मुंबई जा कर फ़िल्मी दुनिया के आकाश पर छा गए और बेहद कामयाब हुए। आज भी उन्हें जुबली स्टार के तौर पर याद किया जाता है यहां ये बात खास तौर पर क़ाबिले ज़िक्र है कि ज़बरदस्त मसरूफ़ियत और बेपनाह कामयाबी के दौर में भी ‘कंवल’ साहेब से उन के रिश्ते न सिर्फ बरकारार रहे बल्कि बचपन की दोस्ती की खुशबू उन्हें अपने मित्र से मिलने के लिए मजबूर करती रही और वो इस रिश्ते को निभाने के लिए अक्सर देहरादून आते रहे , तो-कँवल साहेब अपनी पारिवारिक जिम्मेदारी का निर्वाह करने के लिए फ़ौजी हो गए और अपने शौक़ के तकाजों को पूरा करने के लिए शायर बन कर जिंदगी की जुल्फें संवारने में मसरूफ़ हो गए। अपने 50-55 वर्षों के सहित्यिक सफ़र के दौरान कंवल जियाई ने उर्दू शायरी के माध्यम से समाज को अपनी उत्कृष्ट सेवाएं दीं हैं।विश्व बंधुत्व, सामाजिक समरसता ,स्वाभिमान और उच्च नैतिक आदर्शों को समाज में प्रतिष्ठा दिलाने में कोई कसर नहीं रक्खी, आप की शायरी मुल्क की सरहदों के पार दुनिया के बाशिंदों तक भी पहुँची। पकिस्तान की मशहूर समाज सेविका ज़किया जुबैरा का ख़त हो या अल्ताफ़ हुसैन का, जो इस वक्त लन्दन में रह कर मुहाजिरों के हक़ की लड़ाई लड़ रहे हैं साफ़ ज़ाहिर होता है कि वो लोग कँवल साहेब की शायरी से कितने प्रभावित हुए अल्ताफ़ साहेब ने तो अपने खत में ख़ास तौर पर उस शेर का ज़िक्र किया जो दुनिया के उन तमाम लोगों की पहचान बनता जा रहा है जो अपने हक़ के लिए आवाज़ बुलंद कर रहे हैं।
हमारा दौर अंधेरों का दौर है -लेकिन हमारे दौर की मुट्ठी में आफताब भी है। कंवल जियाई की प्रतिभा के प्रति विशेष सम्मान प्रकट करते हुए तत्कालीन राष्ट्रपति महामहिम शंकर दयाल शर्मा ने उन्हें राष्ट्रपति भवन में आमंत्रित किया, उनकी शायरी की पहली पुस्तक ‘लफ़्ज़ों की दीवार’ का विमोचन भी राष्ट्रपति के कर कमलों से हुआ।
उत्तरांचल राज्य के प्रथम राज्यपाल सुरजीत सिंह बरनाला तक भी आप की शायरी की महक पहुँची , ‘उत्तरांचल की धरती’ नामक एक विस्तृत और प्रभावशाली नज़्म राज भवन में आयोजित एक समारोह में महामहिम राज्यपाल को भेंट की गई ।27 अक्टूबर 2011 को कंवल जियाई का देहरादून में निधन हो गया। भले ही कंवल जियाई आज हमारे बीच न हों , लेकिन अपनी शायरी से वह हमेशा अमर रहेंगे।
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कंवल जियाई के कुछ शेर
हमारा ख़ून का रिश्ता है सरहदों का नहीं।
हमारे ख़ून में गँगा भी चनाब भी है।।
चंद साँसों के लिए बिकती नहीं ख़ुद्दारी।
ज़िंदगी हाथ पे रक्खी है उठा कर ले जा।।
हमारा दौर अंधेरों का दौर है लेकिन।
हमारे दौर की मुट्ठी में आफ़्ताब भी है।।
जिस में छुपा हुआ हो वुजूद-ए-गुनाह-ओ-कुफ्र।
उस मो’तबर लिबास पे तेज़ाब डाल दो।।
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ग़ज़ल
ज़माने को लहू पीने की लत है।
मगर फिर भी यहाँ सब ख़ैरियत है।।
हमारी शख़्सियत क्या शख़्सियत है।
हर इक तेवर दिखावे की परत है।।
हमारा घर बहुत छोटा है लेकिन।
हमारा घर हमारी सल्तनत है।।
ये क़तरा ख़ून का दरिया बनेगा।
अभी इंसान ज़ेर-ए-तर्बियत है।।
तआ’रुफ़ हम से अपनी ज़ात का भी।
अभी अहल-ए-करम की मा’रिफ़त है।।
लिखे हैं गीत बरसातों के जिस पर।
हमारे घर पे उस काग़ज़ की छत है।।
मिरी आँखों में तल्ख़ी उस जहाँ की।
तिरे चेहरे पे ख़ौफ़-ए-आक़िबत है।।
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ग़ज़ल
रोज़ फ़लक से नम बरसेंगे।
प्यार के बादल कम बरसेंगे।।
मौत ने आँचल जब लहराया।
आँगन में मातम बरसेंगे।।
क़तरा क़तरा ख़ून का बन कर।
इस धरती पर हम बरसेंगे।।
ज़ुल्फ़ खुलेगी पुर्वाई की।
गुलशन पर मौसम बरसेंगे।।
अब के बरस बरसात में भाई।
दुख बरसेंगे ग़म बरसेंगे।।
बन कर रुस्वाई के आँसू।
तेरी आँख से हम बरसेंगे।।
हम वो दीवाने हैं जिन पर।
पत्थर अब पैहम बरसेंगे।।
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ग़ज़ल
हर्फ़ों का दिल काँप रहा है लफ़्ज़ों की दीवार के पीछे।
किस क़ातिल का नाम लिखा है लफ़्ज़ों की दीवार के पीछे।।
ख़ून से जलता एक दिया है लफ़्ज़ों की दीवार के पीछे।
आज भी कितनी गर्म हवा है लफ़्ज़ों की दीवार के पीछे।।
करवट ले कर एक क़यामत जागने वाली है अब शायद।
कहने को इक सन्नाटा है लफ़्ज़ों की दीवार के पीछे।।
सहमा सहमा खोया खोया कब से बैठा सोचा रहा हूँ।
किस ने मुझ को क़ैद किया है लफ़्ज़ों की दीवार के पीछे।।
सब जाने पहचाने चेहरे मैं भी तू भी ये भी वो भी।
लाशों का इक शहर बसा है लफ़्ज़ों की दीवार के पीछे।।
लफ़्ज़ों की दीवार के आगे अक्स उभर आया है किस का।
ख़ंजर ले कर कौन खड़ा है लफ़्ज़ों की दीवार के पीछे।।
रूह-ए-ग़ज़ल पर तन्हाई में जाने कितने वार हुए हैं।
मिसरा मिसरा थर्राता है लफ़्ज़ों की दीवार के पीछे।।
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ग़ज़ल
कहाँ तक बढ़ गई है बात लिखना।
मिरे गाँव के सब हालात लिखना।।
जवाँ बेटों की लाशों के अलावा।
मिली है कौन सी सौग़ात लिखना।।
कोई सोता है या सब जागते हैं।
वहाँ कटती है कैसे रात लिखना।।
लहू धरती में कितना बो चुके हो।
नई फ़स्लों की भी औक़ात लिखना।।
कहाँ जलता रहा धरती का सीना।
कहाँ होती रही बरसात लिखना।।
हमारी सर-ज़मीं किस रंग में है।
वहाँ बहते लहू की ज़ात लिखना।।
मैं छुप कर घर में आना चाहता हूँ।
लगी है किस गली में घात लिखना।।
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ग़ज़ल
बहुत दिनों से खुला दर तलाश करता हूँ।
मैं अपने घर में खड़ा घर तलाश करता हूँ।।
पलक पे क़तरा-ए-शबनम उठाए सदियों से।
तिरे करम का समुंदर तलाश करता हूँ।।
नज़र में जीत की तस्दीक़ का सवाल लिए।
गली गली में सिकंदर तलाश करता हूँ।।
बदन बदन से ख़ुलूस-ओ-वफ़ा की ख़ुशबूएँ।
मैं सूँघ कर नहीं छूकर तलाश करता हूं।।
लबों की प्यास बुझाने के वास्ते साक़ी।
किसी बुज़ुर्ग का साग़र तलाश करता हूँ।।
जवाहरात के इक ढेर पर खड़ा हो कर।
नई पसंद का पत्थर तलाश करता हूँ।।
तू आँधियों के तशद्दुद की बात करता है।
मैं अपने टूटे हुए पर तलाश करता हूँ।।
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अंबर खरबंदा, देहरादून