
ग़ज़ल
शबे-गम से डराए जा रहे थे।
हमें वो आजमाए जा रहे थे।।
उधर भी वो निभाए जा रहे थे।
इधर भी गुल खिलाए जा रहे थे।।
दिलासा दे रहे थे दोस्त, हम भी।
दिये की लौ बढ़ाए जा रहे थे।।
निगाहे-नाज़ उनकी क्या बताएं।
सितम उनके उठाए जा रहे थे।।
उन्हें फुरसत कहां के हाल पूछें।
हमीं उनसे निभाए जा रहे थे।।
गवाही दे रहे थे कत्ल की, वो।
निशां सारे मिटाए जा रहे थे।।
फिजां गमगींंन होती जा रही थी।
हमारे खत जलाए जा रहे थे।।
दर्द गढ़वाली, देहरादून
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